महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-19

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एकादश (11) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)

महाभारत: सौप्तिक पर्व:एकादश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का शोक में व्याकुल होना, द्रौपदी का विलाप तथा द्रोणकुमार के वध के लिये आग्रह, भीमसेन का अश्वत्थामा को मारने के लिये प्रस्थान। वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! अपने पुत्रों, पौत्रों ओर मित्रों को युद्ध में मारा गया देख राजा युधिष्ठिर का हृदय महान् दुःख संतप्त हो उठा । उस समय पुत्रों, पौत्रों, भाइयों और खजनों का स्मरण करके उन महात्मा के मन में महान शोक प्रकट हुआ । उनकी आँखे आँसुओं से भर आयी, शरीर कांपने लगा और चेतना लुप्त होने लगी । उनकी ऐसी अवस्था देख उनके सुदृढ अत्यन्त व्याकुल हो उस समय उन्‍हें सान्त्वना देने लगे । इसी समय सामर्थ्‍यशाली नकुल सूर्य के समान तेजस्वी रथ के द्वारा शोक से अत्यन्त पीडित हुई कृष्णा को साथ लेकर वहां आ पहुंचे । उस समय द्रौपदी उपप्लव्य नगर में गयी हुई थी, वहां अपने सारे पुत्रों के मारे जाने का अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन कर वह व्यथित हो उठी थी । राजा युधिष्ठिर के पास पहुंचकर शोक से व्याकुल हुई कृष्णा हवा से हिलायी गयी कदली के समान कम्पित हो पृथ्वी पर गिर पडी । प्रफुल्ल कमल के समान विशाल एवं मनोहर नेत्रों वाली द्रौपदी का सुख सहसा शोक से पीडित हो राहु के द्वारा ग्रस्त हुए सूर्य के समान तेजोहीन हो गया । उसे गिरी हुई देख क्रोध में भरे हुए सत्यपराक्रमी भीमसेन ने उछलकर दोनों बांहों से उसको उठा लिया और उस मालिनी पत्नी को धीरज बंधाया। उस समय रोती हुई कृष्णा ने भरतनन्दन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से कहा- राजन् ! सौभाग्य की बात है कि आप क्षत्रिय धर्म के अनुसार अपने पुत्रों को यमराज की भेंट चढाकर यह सारी पृथ्वी पा गये और अब इसका उपभोग करेगे । कुन्तीनन्दन ! सौभाग्य से ही आपने कुशलपूर्वक रहकर इस मत मातंगामिनी सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य प्राप्त कर लिया, अब तो आपको सुभद्राकुमार अभिमन्यु की भी याद नहीं आयेगी । अपने वीर पुत्रों को क्षत्रिय धर्म के अनुसार मारा गया सुनकर भी आप उप्लव्य नगर में मेरे साथ रहते हुए उन्हें सर्वथा भूल जायेंगे, यह भी भाग्य की ही बात है । पार्थ ! पापाचारी द्रोणपुत्र के द्वारा मेरे सोये हुऐ पुत्रों का वध किया गया, यह सुनकर शोक मुझे उसी प्रकार संतप्त कर रहा है, जैसे आग अपने आधारभूत काष्ठ को ही जला डालती है । यदि आज आप रणभूमि में पराक्रम प्रकट करके सगे सम्बन्धियों सहित पापाचारी द्रोणकुमार के प्राण नहीं हर लेते है तो मैं यही अनशन करके अपने जीवन का अन्त कर दूंगी । पाण्डवों ! आप सब लोग इस बात को कान खोलकर सुन ले । यदि अश्वत्थामा अपने पापकर्म का फल नहीं पा लेता है तो मैं अवश्य प्राण त्याग दूंगी । ऐसा कहकर यशस्विनी द्रुपदकुमारी कृष्णा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के सामने ही अनशन के लिये बैठ गयी । अपनी प्रिय महारानी परम सुन्दरी द्रौपदी को उपवास के लिये बैठी देख धर्मात्मा राजर्षि युधिष्ठिर ने उससे कहा-। शुभे ! तुम धर्म को जानने वाली हो । तुम्हारे पुत्रों और भाईयों ने धर्मपूर्वक युद्ध करके धर्मानुकूल मृत्यु प्राप्त की है, अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये । कल्याणि ! द्रोणकुमार तो यहां से भागकर दुर्गम वन में चला गया है। शोभने ! यदि उसे युद्ध में मार गिराया जाय तो भी तुम्हें इसका विश्वास कैसे होगा? ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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