महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 85 श्लोक 1-14
पञ्चाशीतितम (85) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
महारथियों में श्रेष्ठ। समस्त पाण्ड व संगठित होकर वहां आ पहुंचे थे तो भी उनसे समराङ्गण में विचित्र युद्ध करने वाले गङ्गापुत्र शान्तनुनन्दन महात्मा भीष्मर को व्यथा नहीं हुई। तत्पश्चायत् सत्यप्रतिज्ञ अत्यन्त भयंकर शक्तिशाली और मनस्वी राजा जयद्रथ ने रण में सामने आक्र अपने उत्तम धनुष द्वारा बलपूर्वक उन महारथियों के धनुष काट डाले। क्रोधरूपी विष उगलने वाले महामनस्वी दुर्योधन ने युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण पर युद्ध में कुपित हो अग्नि के समान तेजस्वी बाणों का प्रहार किया। प्रभो! जैसे क्रोध में भरे हुए दैत्यगण एकत्र हो देवताओं पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार कृपाचार्य, शल्य, शल तथा चित्रसेन से युद्धस्थल में अत्यन्त क्रोध में भरकरर समस्त पाण्डीवों को अपने बाणों से घायल कर दिया । शान्तनुनन्दन भीष्मं ने जब शिखण्डीस का धनुष काट दिया,* तब समराङ्गण में अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिर शिखण्डी की ओर देखकर कुपित हो उठे और उससे क्रोध पूर्वक इस प्रकार बोले-। ‘वीर! तुमने अपने पिता के सामने प्रतिज्ञापूर्वक मुझसे यह कहा था कि ‘मैं महान् व्रतधारी भीष्म को निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी बाणसमूहों द्वारा अवश्यप मार डालूंगा, यह बात मैं सत्य कहता हूं।’ ऐसी प्रतिज्ञा तुमने की थी; परंतु तुम इस प्रतिज्ञा को सफल नहीं करते हो। कारण कि युद्ध में देवव्रत भीष्म का वध नहीं कर रहे हो। झूठी प्रतिज्ञा करने वाला न बनो। अपने धर्म, कुल और यश की रक्षा करो। ‘देखो! जैसे यमराज समयानुसार उपस्थित होकर क्षणभर में देहधारी का विनाश कर देते हैं, उसी प्रकार ये युद्ध में भयंकर वेगशाली भीष्मक अत्यन्त प्रचण्डन वेग वाले बाण समूहों के द्वारा मेरी समस्त सेनाओं को कितना संताप दे रहे हैं
- भीष्मरपितामह ने शिखण्डी को अपने ऊपर प्रहार करने के लिये आया देखकर ही उसके धनुष को काट दिया था, उसके शरीर पर कोई प्रहार नहीं किया। अत: कोई दोष नहीं है।
‘युद्ध में शान्तनुनन्दन भीष्मं ने तुम्हारा धनुष काटकर तुम्हें पराजित कर दिया; फिर भी तुम उनकी ओर से निरपेक्ष हो रहे हो। अपने सगे भाइयों को छोड़कर कहां जाओंगे? यह कायदा तुम्हारे अनुरूप नहीं हैं। ‘द्रुपदकुतमार! अनन्त पराक्रमी भीष्मष को तथा उनके डर से इस प्रकार हतोत्साह होकर भागती हुई मेरी इस सेना को देखकर निश्चकय ही तुम डर गये हो; क्योंकि तुम्हारे मुख की कान्ति कुछ ऐसी ही अप्रसन्न दिखायी देती है। ‘वीर! नरवीर अर्जुन कहीं महायुद्ध में फंसे हुए है। उनका इस समय पता नहीं है। ऐसे समय में तुम आज भूमण्ड ल के विख्या त वीर होकर भीष्मस से भय कैसे कर रहे हो? राजन्! धर्मराज के इस वचन में प्रत्येक अक्षर रूखेपन से भरा हुआ था। उनके द्वारा उन्होंने कितनी ही मन के विपरीत बातें कहीं थी, तथापि उस वचन को सुनकर महामना शिखण्डी ने इसे अपने लिये आदेश माना और तुरंत ही भीष्म का वध करने के लिये सचेष्टम हो गया। शिखण्डीे को बडे़ वेग से आते और भीष्म पर धावा करते देख शल्य ने अत्यन्त दुर्जय एवं भयंकर अस्त्र से उसे रोक दिया। राजन्! प्रलयकाल की अग्नि के समान तेजस्वी उस अस्त्र को प्रकट हुआ देखकर देवराज इन्द्र के समान प्रभाव-शाली द्रुपदकुमार शिखण्डी- घबराया नहीं।
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