महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 28-37

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द्शम (10) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्शम अध्याय: श्लोक 28-37 का हिन्दी अनुवाद

नरेन्द्र! देवराज के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवताओं ने संतुष्ट होकर उनकी आज्ञा के अनुसार शीघ्र ही सबाक निर्माण किया। राजन! तत्पश्चात पूजित एवं संतुष्ट हुए इन्द्र ने

राजा मरुत्त से इस प्रकार कहा-‘राजन! यह मैं यहाँ आकर तुमसे मिला हूँ। नरेन्द्र! तुम्हारे जो अन्यान्य पूर्वज हैं, वे तथा अन्य सब देवता भी यहाँ प्रसन्नतापूर्वक पधारे हैं। राजन! ये सब लोग तुम्हारा दिया हुआ हविष्य ग्रहण करेंगे। ‘राजेन्द्र! अग्रि के लिये लाल रंग की वस्तुएँ प्रस्तुत की जायँ, विश्वेदेवों के लिये अनेक रूप-रंग वाले पदार्थ दिये जायँ, श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ छूकर दिये गये चंचल शिश्नवाले नील रंग के वृषभ का दान ग्रहण करें’। नरेश्वर! तदनन्तर राजा मरुत्त के यज्ञ का कार्य आगे बढ़ा, जिसमें देवता लोग स्वयं ही अन्न परोसने लगे। ब्राह्मणों द्वारा पूजित, उत्तम अश्वों से युक्त देवराज इन्द्र उस यज्ञमण्डप में सदस्य बनकर बैठे थे।इसके बाद द्वितीय अग्रि के समान तेजस्वी एवं यज्ञमण्डप में बैठे हुए महात्मा संवर्त ने अत्यन्त प्रसन्नचितत होकर देववृन्द्र का उच्चस्वर से आह्वान करते हुए मन्त्र पाठ पूर्वक अग्रि में हविष्य का हवन किया। तत्पश्चात इन्द्र तथा सोमपान के अधिकारी अन्य देवताओं ने उत्तम सोमरस का पान किया। इससे सबको तृप्ति एंव प्रसन्नता हुई। फिर सब देवता राजा मरुत्त की अनुमति लेकर अपने-अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर शत्रुहन्ता राजा मरुत्त बड़े हर्ष के साथ वहाँ ब्राहणों को बहुत-से धन का दान करते हुए उनके लिये पग-पग पर सुवर्ण के ढेर लगवा दिये। उस समय धनाध्यक्ष कुबेर के समान उनकी शोभा हो रही थी| इसके बाद ब्राह्मणों के ले जाने से जो नाना प्रकार का धन बच गया, उसको मरुत्त ने उत्साहपूर्वक कोष-स्थान बनवाकर उसी में जमा कर दिया। फिर अपने गुरु सवंर्त की आज्ञा लेकर वे राजधानी को लौट आये और समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य करने लगे। नरेन्द्र! राजा मरुत्त ऐसे प्रभावशाली हुए थे। उनके यज्ञ में बहुत-सा सुवर्ण एकत्र किया गया था। तुम उसी धन को मँगवाकर यज्ञ भाग से देवताओं को तृप्त करते हुए यजन करो।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! सत्यवतीनन्दन व्यासजी के ये वचन सुनकर पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उस धन के द्वारा यज्ञ करने का विचार किया तथा इस विषय में मंत्रियों के साथ बारंबार मंत्रणा की।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेधपर्व में संवर्त और मरुत्त का उपाख्यानविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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