महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 326 श्लोक 19-36
षड्विंशत्यधिकत्रिशततम (326) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
शुकदेव जी ने पूछा- राजन् ! यदि किसी के हृदय में ब्रह्मचर्य-आश्रम में ही सनातन ज्ञान-विज्ञान प्रकट हो जाय और हृदय के राग-द्वेष आदि द्वन्द्व दूर हो जायँ तो भी क्या उसके लिये शेष तीन आश्रमों में रहना आवश्यक है ? नरेश्वर ! मैं यही बात आपसे पूछता हूँ। आप मुझे यह बताने की कृपा करें। वेद के वास्तविक सिद्धान्त के अनुसार क्या करना उचित है ? यह आप मुझे बताइयै।
जनक ने कहा- ब्रह्मन्् ! तैसे ज्ञान-विज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार सद्गुरु से सम्बन्ध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु इस संसार सागर से पार उतारने वाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान यहाँ नौका के समान बताया जाता है। मनुष्य उस ज्ञान को पाकर भवसागर से पार और कृतकृत्य हो जाता है। जैसे नदी को पार कर लेने पर मनुष्य नाव और नाविक दोनों को छोड़ देता है, उसी प्रकार मुक्त हुआ पुरुष गुरु और ज्ञान दोनों को छोड़ दे।पहले के विद्वान् लोक मर्यादा की तथा कर्म परम्परा की रक्षा करने के लिये चारों आरमों सहित वर्ण धर्मों का पालन करते थे। इस तरह क्रमशः नाना प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करते हुए शुभाशुभ कर्मों की आसक्ति का परित्याग करने से यहाँ मोक्ष की प्राप्ति होती है। अनेक जन्मों से कर्म करते-करते जब सम्पूर्ण इन्द्रियाँ पवित्र हो जाती हैं, तब शुद्ध अन्तःकरण वाला मनुष्य पहले ही आश्रम में अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में मोक्ष रूप ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उसे पाकर जब ब्रह्मचर्य-आश्रम में ही तत्त्व का साक्षात्कार हो जाय तो परमात्मा को चाहने वाले जीवमुक्त विद्वान् के लिये शेष तीन आरमों में जाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् कोई आवश्यकता नहीं है। विद्वान् को चाहिये कि वह राजस और तामस दोषों का सदा ही परित्याग कर दे और सात्त्विक मार्ग का आश्रय लेकर बुद्धि के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करे। जो सम्पूर्ण भूतों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण भूतों को देखता है? वह संसार में उसी तरह कहीं भी आसक्त नहीं होता जैसे जलचर पक्षी जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता। वह तो घोंसले को छोड़कर उड़ जाने वाले पक्षी की भाँति इस देह से पृथक् हो निद्र्वन्द्व एवं शान्त होकर परलोक में अक्षयपद (मोक्ष)- को प्राप्त हो जाता है। तात् ! इस विषय में पूर्वकाल में राजा ययाति के द्वारा गायी हुई गाथाएँ सुनिये, जिन्हें मोक्षशास्त्र के ज्ञाता द्विज सदा याद रखते हैं। अपने भीतर ही आत्मज्योति का प्रकाश है, अन्यत्र नहीं। वह ज्योति सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर समान रूप से स्थित है। अपने चित्त को भली भाँति एकाग्र करने वाला उसको स्वयं देख सकता है।जिससे दूसरा कोई प्राणी नहीं डरता, जो स्वयं दूसरे किसी प्राणी से भयभीत नहीं होता तथा जो न तो किसी वस्तु की इच्छा करता है और न किसी से द्वेष ही रखता है, वह तत्काल ब्रह्मभाव को प्रापत हो जाता है।जब मनुष्य मन, वाणी, तथा क्रिया के द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति पापभाव नहीं करता अर्थात् समस्त प्राणियों में द्वेषरहित हो जाता है, उस समय वह ब्रह्मभाव को प्रापत हो जाता है। जब मोह में डालने वाली ईष्र्या, काम एवं मोह का त्याग करके साधक अपने मन को आत्मा में लगा देता है, उस समय वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। जब यह साधक सुनने और देखने योग्य पदार्थों में तथा सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव वाला हो जाता है एवं सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित हो जाता है, उस समय वह ब्रह्मभाव को प्रापत हो जाता है।
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