महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 328 श्लोक 18-37

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अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततम (328) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततम: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद

वह सब आपकी जानकारी में है। ब्रह्मर्षे ! बताईये, आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ‘ब्रह्मर्षि नारद ! इस समय मेरा जो कर्तव्य है, उसे भी बताइये। अपने प्सारे शिष्यों से बिछुड़ जाने के कारण इस समय मेरा यह मन विशेष प्रसन्न नहीं है’। नारद जी ने कहा- व्यासजी ! वे पढ़कर उसका अभ्यास (पुनरावृत्ति) न करना वेदाध्ययन का दूषण है। व्रत का पालन न करना ब्राह्मण का दूषण है। वाहीक देश के लोग पृथ्वी के दूषण है। और नये-नये खेल-तमाशा देखने की लालसा स्त्री के लिये दोष की बात है। आप अपने वेदोच्चारण की ध्वनि से राक्षसभयजनित अन्धकार का नाश करते हुए बुद्धिमान् पुत्र शुकदेवजी के साथ वेदों का स्वाध्याय करते रहें। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! नारदजी की बात सुनकर परम धर्मज्ञ व्यासजी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और हर्ष में भरकर वे वेदाभ्यास रूपी व्रत का दृढ़ता पूर्वक पालन करने लगे। उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव के साथ शिक्षा के नियमानुसार उच्च स्वर से तीनों लोकों को परिपूर्ण करते हुए से वेदों की आवृत्ति आरम्भ कर दी। नाना प्रकार के धर्मों का प्रतिपादन करने वाले वे पिता-पुत्र उक्त रूप से वेदों का अभ्यास कर ही रहे थे कि समुद्री हवा से प्रेरित होकर जोर की आँधी चलने लगी। तब अनध्याय-काल बताकर व्यासजी ने अपने पुत्र को वेद पढ़ने से उस समय रोक दिया। उनके मना करने पर शुकदेवजी के मन में इसका कारण जानने के लिए प्रबल उत्कण्ठा हुई। उन्होंने अपने पितस से पूछा- ‘ब्रह्मन् ! इस वायु की उत्पत्ति किससे हुई है ? आप वायु की सारी चेष्टाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन करें’। शुकदेवजी का यह वचन सुनकर व्यासजी अत्यन्त आश्चर्य से चकित हो उठे और अनध्याय के कारण पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार बोले -। ‘बेटा ! तुम्हें स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है। तुम्हारा हृदय अत्यन्त निर्मल है। तुम रजोगुण और तमोगुण से रहित होकर सत्त्वगुण में प्रतिष्ठित हो। ‘जैसे लोग दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं, उसी प्रकार तुम बुद्धि के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करते हो; अतः स्वयं ही वेदों को अपने भीतर स्थापित करके बुद्धि द्वारा अनध्याय के कारणभूत वायु के विषय में विचार करो। ‘मरकर ऊपर के लोकों में जाने वाले और नीच के लोकाके में जाने वाले मनुष्यों के लिये दो मार्ग हैं, एक तो देवयान जो कि विष्णुलोक का मार्ग है, अतः सात्त्विक है, दूसरा पितृयान जो कि पामस है। ‘पृथ्वी पर या आकाश में जहाँ भी हवा चलती है, उसके बहने के लिये सात मार्ग हैं। तुम क्रमशः उनका वर्णन सुनो। ‘पृथ्वी और आकाश में जो महाबली और महान् भूत-स्वरूप साध्य नामक देवगण अदृश्यभाव से रहते हैं, उनके दुर्जय पुत्र का नाम है समान ‘समान पुत्र है उदान, उदान का पुत्र है व्यान, उसके पुत्र का नाम अपान जानना चाहिये और अपान से प्राण की उत्पत्ति हुई है। ‘प्राण के कोई संतान नहीं हुई। वह शत्रुओं को संताप देने वाला और दुर्जय है। उन सबके कर्म पृथक्-पृथक् हैं, जिनका मैं तुमसे यथावत् रूप से वर्णन करता हूँ। ‘वायुदेव प्राणियों की पृथक्-पृथक् समस्त चेष्टाओं का सम्पादन करते हैं तथा सम्पूर्ण भूतों को अनुप्राणित (जीवित) रखते हैं, इसलिये ‘प्राण’ कहलाते हैं। ‘जो धूम तथा गर्मी से उत्पन्न बादलों और ओलों को इधर से उधर ले जाता है, वह प्रथम मार्ग में प्रवाहित होने वाला ‘प्रवह’ नामक प्रथम वायु है। ‘जो आकाश में रस की मात्राओं और बिजली आदि की उत्पत्ति के लिये प्रकट होता है, वह महान् तेज से सम्पन्न द्वितीय वायु ‘आवह’ नाम से प्रसिद्ध है। वह बड़ी भारी आवाज के साथ बहता है। ‘ जो सदा सोम, सूर्य आदि ग्रहों का उदय एवं उद्भव करता है, मनीषी पुरुष शरीर



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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