महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 329 श्लोक 1-21

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एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततम (329) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

शुकदेवजी को नारदजी का वैराग्य और ज्ञान का उपदेश

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! व्यासजी के चले जाने के बाद उस सूने आश्रम में स्वाध्याय परायण शुकदेव से अपना इच्छित वेदों का अर्थ कहने के लिए देवर्षि नारदजी पधारे। देवर्षि नारद को उपस्थित देख शुकदेव ने वेदाक्त विधि से अध्र्य आदि निवेदन करके उनका पूजन किया शुकदेवजी को नारदजी का उपदेश उस समय नारदजी ने प्रसन्न होकर कहा- ‘वत्स ! तुम धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हो। बताओ, तुम्हें किस श्रेष्ठवस्तु की प्राप्ति कराऊँ ?’ यह बात उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कही। भरतनन्दन ! नारदजी की यह बात सुनकर शुकदेव ने कहा- ‘इस लोक में जो परम कल्याण का साधन हो, उसी का मुझे उपदेश देने की कृपा करें’|

नारदजी ने कहा- वत्स ! पूर्वकाल की बात है, पवित्र अनतःकरण वाले ऋषियों ने तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रश्न किया। उसके उत्तर में भगवान् सनत्कुमार ने यह उपदेश दिया। विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है। सत्य के समान कोई तप नहीं है। राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। पाप कर्मों से दूूर रहना, सदा पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरुषों के से बर्ताव और सदाचाार का पालन करना यही सर्वोत्तम श्रेय (कल्याण) कर साधन है। जहाँ सुख का नाम भी नहीं है, ऐसे इस मानव-शरीर को पाकर जो विषयों में आसक्त होता है, वह मोह को प्राप्त होता है। विषयों का संयोग दुःख रूप ही है, अतः दुःखों से छुटकारा नहीं दिला सकता। विष्यासक्त पुरुष की बुद्धि चंचल होती है। वह मोहजाल को बढ़ाने वाली है, मोहजाल में बँधा हुआ पुरुष इस लोक तथा परलोक में दुःख ही भेगता है। जिसे कल्याण प्राप्ति की इच्छा हो, उसे सभी उपायों से काम और क्रोध को दबाना चाहिये; क्योंकि ये दोनों दोष कल्याण का नाश करने के लिये उद्यत रहते हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह सदा तप को क्रोध से, लक्ष्मी को डाह से, विद्या को मानापमान से और अपने आप को प्रमाद से बचावे। क्रूर स्वभाव का परित्याग सबसे बड़ा घर्म है। क्षमा सबसे बडत्रा बल है। आत्मा का ज्ञान ही सबसे उत्कृष्ट ज्ञान है और सत्य से बढ़कर तो कुछ भी नहीं। सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है; परंतु सत्य से भी श्रेष्ठ है हितकारक वचन बोलना। जिससे प्राणियों का अत्यन्त हित होता हो, वही मेरे विचार से सत्य है। जो कार्य आरम्भ करने के सभी संकल्पों को छोड़ चुका है, जिसके मन में कोई कामना नहीं है? जो किसी वसतु का संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान है औ वही पण्डित है। जो अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा यहाँ अनासक्त भाव से विषयों का अनुभव करता है, जिसका चित्त शान्त, निर्विकार और एकाग्र है तथा जो आत्मस्वरूप प्रतीत होने वाले देह और इन्द्रियाँ हैं, उनके सा रहकर भी उनसे तद्रूप न हा अलग-सा ही रहता है, वह मुक्त है और उसे बहुत शीघ्र परम कल्यरण की प्राप्ति होती है। मुने ! जिसकी किसी प्राणी की ओर दृष्टि नहीं जाती, जो किसी का स्पर्श तथा किसी से बातचीत नहीं करता, वह परम कल्याण को प्राप्त होता है। किसी प्राणी की हिंसा न करे। सबके प्रति मित्रभाव रखते हुए विचरे तथा यह मनुष्य जन्म पाकर किसी के साथ वैर न करे। जो आत्मतत्त्व का ज्ञाता तथा मन को वश में रखने वाला है, उाके लिये यही परम कल्याण का साधन बताया गया है कि वह किसी वस्तु का संग्रह न करे, संतोष रखे तथा कामना और चंचलता को त्याग दे। तात शुकदेव ! तुम संग्रह का त्याग करके जितेन्द्रिय हो जाओ तािा उस पद को प्राप्त करो, जो इस लोक और परलोक में भी निर्भय एवं सर्वथा शोकरहित है। जिन्होंने भोगों का परित्याग कर दिया है, वे कभी शोक में नहीं पड़ते, इसलिये प्रत्येक मनुष्य को भोगासक्ति का त्याग करना चाहिये। सौम्य ! भोगों का त्याग कर देने पर तुम दुःख और संताप से छूट जाओगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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