महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 329 श्लोक 22-39

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एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततम (329) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद

जो अजित (परमात्मा) को जीतने की इच्छा रखता है, उसे तपस्वी, जितेन्द्रिय, मननशील, संयमचित्त और विषयों में अनासक्त रहना चाहिये। जो ब्राह्मण त्रिगुणात्मक विषयों में आसक्त न होकरसदा एकान्तवास करता है, वह शीघ्र्र ही सर्वोत्तत सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।जो मुनि मैथुन में सुख मानने वाले प्राणियों के बीच में रहकर भी अकेले रहने में ही आनन्द मानता है, उसे विाान से परितृप्त समझना चाहिये। जो ज्ञान से तृप्त होता है, वह कभी शोक नहीं करता। जीव सदा कर्मों के अधीन रहता है। वह शुभ कर्मों के अनुष्ठान से देवता होता है, दोनों के सम्मिश्रण से मनुष्य जन्म पाता है और केवल अशुभ कर्मों से पशु-पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म लेता है। उन-उन योनियों में जीव को सदा जरा-मृत्यु और नाना प्रकार के दुःखों से संतप्त होना पड़ता है। इस प्रकार संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी संताप की आग में पकाया जाता है- इस बात की ओर तुम क्यों नहीं ध्यान देते ? तुमने अहित में हित-बु;िद्ध कर ली है, जो अध्रुव (विनाशशील) वस्तुएँ हैं, उन्हीं को ‘ध्रुव’ (अविनशी) नाम दे रखा है और अनर्थ में ही तुम्हें अर्थ का बोध हो रहा है। यह बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आती है ? जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही शरीर से उत्पन्न हुए तन्तुओं द्वारा अपने-आपको आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार तुम भी मोह वश अपने ही से उत्पन्न सम्बन्ध के बन्धनों द्वारा अपने-आपको बाँधते जा रहे हो तो भी यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है। यहाँ विभिन्न वस्तुओं के संग्रह की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संग्रह से महान् दोष प्रकट होता है। रेशम का कीड़ा अपने संग्रह-दोष के कारण ही बन्णन में पड़ता है। स्त्री-पुत्र और कुटुम्ब में आसक्त रहने वाले प्राणी उसी प्रकार कष्ट पाते हैं, जैसे जंगल में बुढ़े हाथी तालाब के दलदल में फँसकर दुःख उठाते हैं। जिस प्रकार माहन् जाल में फँसकर पानी ो बाहर बाये हुए मत्स्य तड़पते हैं, उसी प्रकार स्नेहजाल से आकृष्ट होकर अत्यन्त कष्ट उठाते हुए इन प्राणियों की ओर दृष्टिपात करो। संसार में कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र, शरीर और संग्रह- सब कुछ पराया है। सब नाशवान् हैं। इसमें अपना क्या है, केवल पाप और पुण्य। जब सब कुछ छोड़कर तुम्हें यहाँ से विवश होकर चल देना है, तब इस अनर्थमय जगत् में क्यों आसक्त हो रहे हो ? अपने वास्तविक अर्थ- मोक्ष का साधन क्यों नहीं करते हो? जहाँ ठहरने के लिये कोई स्थान नहीं, कोई सहारा देने वाला नहीं, राहखर्च नहीं तथा अपने देश का कोई साथी अथवा राह बताने व0ाला नहीं है, जो अन्धकार से व्याप्त और दुर्गम है, उस मार्ग पर तुम अकेले कैसे चल सकोगे ?। जब तुम परलोक की राह लोगे, उस समय तुम्हारे पीछे कोई नहीं जायगा। केवल तुम्हारा किया हुआ पुण्य या पाप ही वहाँ जाते समय तुम्हारा अनुसरण करेगा। अर्थ (परमात्मा) की प्राप्ति के लिये ही विद्या, कर्म, पवित्रता और अत्यन्त विस्तृत ज्ञान का सकारा लिया जाता है। जब कार्य की सिद्धि (परमात्मा की प्राप्ति) हो जाती है, तब मनुष्य मुक्त हो जाता है। गाँवों में रहने वाले मनुष्य की विषयों के प्रति जो आसक्ति होती है, वह उसे बाँधने वाली रस्सी के समान है। पुण्यात्मा पुरुष उसे काटकर आगे- परमार्थ के पथ पर बढ़ जाते हैं; किंतु जो पापी हैं, वे उसे नहीं काट पाते। यह संसार एक नदी के समान है, जिसका उपादान या उद्गम सत्य है, रूप इसका किनारा है, मन स्त्रोत, स्पर्श द्वीप और रस ही प्रवाह है, गन्ध उस नदी की कीचड़, शब्द जल और स्वर्ग रूपी दुर्गम घाट है। शरीर रूपी नौका की सहायता से उसे पार किया जा सकता है। क्षमा इसको खेनेवाली लग्गी और धर्म इसको स्थिर करने वाली रस्सी (लंगर) है। यदि त्यागरूपी अनुकूल पवन का सहारा मिले तो इस शीघ्रगामिनी नइी को पार किया जा सकता है। इसे पार करने का अवश्य प्रयत्न करें।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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