महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 333 श्लोक 1-18

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त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततम (333) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

शुकदेवजी की परमपद-प्राप्ति तथा पुत्र-शोक से व्याकुल व्यासजी को महादेवजी का आश्वासन देना

भीष्मजी कहते हैं- यधिष्ठिर ! यह वचन कहकर महातपस्वी शुकदेवजी सिद्धि पाने के उद्देश्य से आगे बढ़ गये। बुद्धिमान शुक ने चार प्रकार के दोषों का, आठ प्रकार के तमोगुण का तथा पाँच प्रकार के रजोगुण का परित्याग करके सत्त्वगुण को भी त्याग दिया[१] ; यह एक अद्भुत-सी बात हुई। तत्पश्चात् वे नित्य निर्गुण एवं लिंगरहित ब्रह्मपद में सिथत हो गये। उस समय उनका तेज धूमहीन अग्नि की भाँति देदीप्यमान हो रहा था। उसी क्षण उल्काएँ टूटकर गिरने लगीं। दिशाओं में दाह होने लगा और धरती डोलने लगी। यह सब आश्चर्य की सी घटना घटित हुई। वृक्षों ने अपनी शाखाएँ अपने-आप तोड़कर गिरा दीं। पर्वतों ने अपने शिखर भंग कर दिये। वज्रपात के शब्दों से गिरिराज हिमालय विदीर्ण-सा होता जान पड़ता था। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी। आग प्रज्वलित नहीं होती थी। सरोवर, सरिता और समद्र सभी क्षुब्ध हो उठे। इन्द्र ने सरस और सुगन्धित जल की वर्षा की तथा दिव्य गन्ध फैलाती हुई परम पवित्र वायु चलने लगी। भरतनन्दन ! आगे बढ़ने पर श्रीशुकदेवजी ने पर्वत के दो दिव्य एवं सुनदर शिखर देखे, जो एक-दूसरे से सटे हुए थे। उनमें से एक हिमालय का शिखर था और दूसरा पूरुपर्वत का। हिमालय का शिखर रजतमय होने के कारण श्वेत दिखायी देता था और सुमेरु का स्वर्णमय श्रृंग पीले रंग का था। इन दोनों की ल्रबाई-चैड़ाई और ऊँचाई सौ-सौ योजन की थी। उत्तर दिशा की ओर जाते समय ये दोनों सुरम्य शिखर शुकदेवजी की दृष्टि में पड़े। उन्हें देखकर वे पूर्ववत् निःशंक मन से उनके ऊपर चढ़ गये। फिर तो वे दोनों पर्वत शिखर सहसा दो भागों में बँट गये और बीच से फटे हुए से दिखाई देने लगे। महाराज ! यह अद्भुत-सी बात हुई। तत्पश्चात् उन पर्वत शिखरों से वे सहसा आगे निकल गये। वह श्रेष्ठ पर्वत उनकी गति को न रोक सका। यह देख सम्पूर्ण देवताओं, गन्धर्वों, ऋषियों तािा जो उस पर्वत पर रहने वाले दूसरे लोग थे, उन सबने बड़े जोर से हर्षनाद किया। उनकी हर्षध्वनि आकाश में चारों ओर गूँज उठी। ।भारत ! शुकदेवजी को पर्वत लाँघकर आगे बढ़ते और उस पर्वत को दो टुकड़ों में विदीर्ण होते देख वहाँ सब ओर ‘साधु-साधु’ शब्द सुनाई पड़ने लगे। महाराज ! देवता, गन्धर्व, ऋषि, यक्ष, राक्षस और विद्याधरों ने उनका पूजन किया। वहाँ से शुकदेवजी के ऊपर उठते समय उनके चढ़ाये हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा से वहाँ सब ओर का सारा आकाश छा गया। राजन् ! धर्मात्मा शुक ने ऊध्र्वलोक मे जाते समय खिले हुए वृक्षों और वनों से सुशोभित रमणीय मन्दाकिनी (आकाशगंगा) का दर्शन किया। उसमें बहुत-सी अप्सराएँ स्नान एवं जलक्रीड़ा कर रही थीं। यद्यपि वे नग्न थीं, तो भी शुकदेवजी को शुन्याकार (बाह्यज्ञान से रहित एवं आत्मनिष्ठ) देख अपने शरीर को ढकने या छिपाने के लिये उद्यत नहीं हुईं। उन्हें इस प्रकार सिद्धि के लिये उत्क्रमण करते जान उनके पिता वेदव्यासजी भी स्नेहवश उत्तम गति का आश्रय ले उनके पीछे-पीछे जाने लगे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्त्वगुण भी सुख और ज्ञान के सम्बन्ध से बाँधने वाला होता है। ‘मैं सुखी हूँ, अज्ञानी हूँ’ ऐसा जो अभिमानी हो जाता है, वह ज्ञानी को गुणातीत अवस्था से वंचित रख देता है। इसलिये यहाँ सत्त्वगुण को भी त्याग देने की बात कही गई है।

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