महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 333 श्लोक 19-42

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त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततम (327) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 19-41 का हिन्दी अनुवाद

उधर शुकदेव वायु से आकाशगामिनी ऊध्र्वगति का आश्रय ले अपना प्रभाव दिखाकर ततकाल ब्रह्मीभूत हो गये। महातपस्वी व्यासजी दूसरी महायोग सम्बन्धिनी गति का अवलम्बन करके ऊपर को उठे और पलक मारत-मारते उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ से उन पर्वत शिखरों को दो भागों में विदीर्ण करके शुकदेवजी आगे बढ़े थे। वह स्थान शुकाभिपतन के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने उस स्थान को देखा। वहाँ रहने वाले ऋषियों ने आकर व्यासजी से उनके पुत्र का वह अलौकिक कर्म कह सुनाया। तब व्यासजी ने शुकदेव का नाम लेकर बड़े जोर से रोदन किया। जब पिता ने उच्च स्वर से तीनों लोकों को गुँजाते हुए पुकारा, तब सर्वव्यापी, सर्वात्मा एवं सर्वतोमुख होकर धर्मातमा शुक ने ‘भोः’ याब्द से सम्पूर्ण जगत् को प्रतिध्वनित करते हुए पिता को उत्तर दिया। उसी के साथ-साथ सम्पूर्ण चराचर जगत् ने उच्च स्वर से ‘भोः’ इस एकाक्षर शब्द का उच्चारण करते हुए उत्तर दिया। तभी से आज तक पर्वतों के शिखर पर अथवा गुफाओं के आस-पास जब-जब आवाज दी जाती है, तब-तब वहाँ के चराचर निवासी प्रतिध्वनि के रूप में उसका उत्तर देते हैं, जैसा कि उन्होंने शुकदेवजी के लिये किया था। इस प्रकार अपना प्रभाव दिखलाकर शुकदेवजी अन्तर्धान हो गये और शब्द आदि गुणों का परित्याग करके परमपद को प्राप्त हुए। अपने अमित तेजस्वी पुत्र की यह महिमा देखकर व्यासजी उसी का चिन्तन करते हुए उस पर्वत के शिखर पर बैई गये। उस समय मन्दाकिनी के तट पर क्रीड़ा करती हुई समस्त अप्सराएँ महर्षि व्यास को अपने निकट पाकर बड़ी घबराहट में पडत्र गयीं, अचेत-सी हो गयीं। कोई जल में छिप गयीं और कोई लताओं के झुरमुट में कुछ अप्सराओं ने मुनिश्रेष्ठ व्यासजी को देचाकर अपने वस्त्र पहन लिये। उस समय अपने पुत्र की मुक्तता जानकर मुनि बड़े प्रसन्न हुए और अपनी आसक्ति का विचार करके वे बहुत लज्जित हुए। इसी समय देवताओं और गन्धर्वों से घिरे हुए तथा महर्षियों से पूजित पिनाकधारी भगवान् शंकर वहाँ आ पहुँचे और पुत्र-शोक से संतप्त वेदव्यासजी को सांत्वना देते हुए कहने लगे- ‘ब्रह्मन् ! तुमने पहले अग्नि, भूमि, जल, वायु और आकाश के समान शक्तिशाली पुत्र होने का मुझसे वरदान माँगा था; अतः तुम्हें तुम्हारी तपस्या के प्रभाव तथा मेरी कृपा से पालित वैसा ही पुत्र प्राप्त हुआ। वह ब्रह्मतेज से सम्पन्न और परम पवित्र था। ‘ब्रह्मर्षे ! इस समय उसने ऐसी उत्तम गति प्राप्त की है, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों तथा देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, फिर भी तुम उसके लिये क्यों शोक कर रहे हो ? ‘जब तक इस संसार में पर्वतों की सत्ता रहेगी और जब तक समुद्रों की स्थिति बनी रहेगी, तब तक तुम्हारी और तुम्हारे पुत्र की अक्षय कीर्ति इस संसार में छायी रहेगी। ‘महामुने ! तुम मेरे प्रसाद से इस जगत् में सदा अपने पुत्र सदृश छाया का दर्शन करते रहोगे। वह सब ओर दिखायी देगी, कभी तुम्हारी आँखों से ओझल न होगी’। भरतनन्दन ! साक्षात् भगवान् शंकर के इस प्रकार आश्वासन देने पर सर्वत्र अपने पुत्र की छाया देखते हुए मुनिवर व्यास बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने आश्रम पर लौट आये। भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! तुम मुझसे जिसके विषय में पूछ रहे थे, वह शुकदेवजी के जन्म और परमपद प्राप्ति की कथा मैंने तुम्हें विस्तार से सुनायी है। राजन् ! सबसे पहले देवर्षि नारदजी ने यह वृतानत मुझे बताया था। महायोगी व्यासजी भी बातचीत के प्रसंग में पद-पद पर इस प्रसंग को दुहराया करते हैं। जो पुरुष मोक्षधर्म से युक्त इस परम पवित्र इतिहास को सुनकर या पढ़कर अपने हृदय में धारण करेगा, वह शान्तिपरायण हो परमगति (मोक्ष) को प्रापत होगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेवजी की ऊध्र्वगति के वर्णन की समाप्ति नामक तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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