महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 336 श्लोक 20-42

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षट्त्रिंशदधिकत्रिशततम (336) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व:षट्त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर एकत, द्वित और त्रित ने तथा चित्रशिखण्डी नाम वाले ऋषियों ने उनसे कहा - ‘बृहस्पते ! हमलोग ब्रह्माजी के तानसपुत्र कहलाते हैं। एक बार अपने कल्याण की इच्छा से हम सबने उत्तर दिशा की यात्रा की। ‘वहाँ मेरु के उत्तर और क्षरसागर के किनारे एक पवित्र स्थान है, जहाँ हम लोगों ने हजार वर्षों तक एकाग्रचित्त हो काष्ठ की भाँति एक र्पेर से खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या की थी। वह उत्तम तपस्या करके हम यही चाहते थे कि किसी तरह वरदायक सनातन देवाधिदेव वरणीय भगवान् नारायण का दर्शन कर लें। ‘हम बारंबार यही सोचते थे कि हमें श्रीनारायण का दर्शन कैसे प्राप्त होगा ? तदनन्तर व्रत की समापित होने पर हमें हर्ष प्रदान करने वाली किसी शरीर रहित वाणी ने स्नेहपूर्ण गम्भीर स्वर से इस प्रकार कहा ‘ब्राह्मणों ! तुमने प्रसन्न हृदय से भलीभाँति तप किया है। तुम ीागवान् के भक्त हो और यह जानना चाहते हो कि उन सर्वव्यापी परमातमा का दर्शन कैसे हो ‘इसका उपाय सुनो। क्षीरसागर के उत्तर भाग में अत्यन्त प्रकाशमान श्वेतद्वीप है। वहाँ भगवान् नारायण का भजन करने वाले पुरुष रहते हैं, जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान् हैं। ‘वे स्रूूल इन्द्रियों से रहित, निराहार और निश्चेष्ट होते हैं। उनके शरीर से मनोहर सुगन्ध निकलती रहती है तथा वे भगवान् के अनन्य भक्त होते हैं और सहस्त्रों किरणों वाले उन सनातनदेव भगवान् पुरुषोत्तम में प्रवेश कर जाते हैं। ‘मुनियों ! वे श्वेतद्वाीप के निवासी मेरे एकान्त भक्त हैं, तुम वहीं जाओ। वहाँ मेरे स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन होता है।’ ‘इस प्रकार आकाशवाणी को सुनकर हमलोग उसके बताये हुए मार्ग से उस सथान को गये। ‘श्वेत नामक महाद्वाीप में पहुँचकर हमारा चित्त भगवान् में ही लगा रहा। हम उनके दर्शन की इच्छा से उत्कण्ठित हो रहे थे। वहाँ जाते ही हमारी दृष्टिशक्ति प्रतिहत हो गयी। ‘वहाँ के निवासियों के तेज से आँखें चैंधिया जाने के काण्र हम वहाँ किसी पुरुष को देख नहीं पाते थे। तदनन्तर दैवयोग से हमारे हृदय में यह ज्ञान प्रकट हुआ कि तपस्या किये बिना हमलोग भगवान् को सुगमता पूर्वक नहीं देख सकते। ‘तदनन्तर हमने तत्काल पुनः सौ वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की। उस तपोमय व्रत के पूर्ण होने पर हमलोगों को वहाँ के शुभलक्षण पुरूषों का दर्शन हुआ, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण और सब प्रकार के उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे। ‘वे प्रतिदिन ईशानकोण की ओर मुँह करके हाथ जोड़े हुए ब्रह्म का मानसजप करते थे। ‘उनके मन की इस एकाग्रता से भगवान् श्रीहरि प्रसन्न होते थे। मुनिश्रेष्ठ ! प्रलयकाल में सूर्य की जैसी प्रभा होती है, वैसी ही उस द्वीप में रहने वाले प्रत्येक पुरुष की थी। ‘हमलोागों ने तो यही समझा कि वह द्वीप तेज का ही निवास स्थान है। वहीँ कोई किसी से बढ़कर नहीं था। सबका तेज समान था। ‘बृहस्पते ! थोड़ी ही देर में हारे सामने एक ही साथ हजारों सूर्यों के समान प्रभा प्रकट हुई। हमारी दृष्टि सहसा उस ओर खिंच गयी। ‘तदनन्तर वहाँ के निवासी पुरुष बड़ी प्रसन्नता के साथ दोनों हाथ जोडत्रे ‘नमो नमः’ कहते हुए एक ही साथ तीव्र गति से उस तेज की ओर दौड़े। ‘इसके बाद जब वे स्तुति करने लगे, तब उनकी तुमुल ध्वनि हमारे कानों में पड़ी। वे सब लोग उन तेजोमय भगवान् को पूजा की सामग्री अर्पण कर रहे थे। ‘भगवान् के उस अनिर्वचनीय तेज ने हमारे चित्त को सहसा खींच लिया था; परन्तु हमारे नेत्र, बल और इन्द्रियाँ प्रतिहत हो गयीं थीं, इसलिये हम स्पष्ट रूप से कुछ देख नहीं पाते थे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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