महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 336 श्लोक 43-65

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षट्त्रिंशदधिकत्रिशततम (336) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व :षट्त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 43-65 का हिन्दी अनुवाद

‘परंतु एक शब्द जो उच्च स्वर से उच्चारित होकर दूर तक फैल रहा था, हमने भी सुना। सब लोग कह रहे थे- ‘पुण्डरीकाक्ष ! आपकी जय हो। विश्वभावन ! आपको प्रणाम है। महापुरूषों के भी पूर्वज हृषिकेश ! आपको नमसकार है।’ ‘शिक्षा और अक्षर से युक्त यह वाक्य हम लोगों को श्रवण गोचर हुआ। इतने ही में पवित्र और सुगन्धित वायु बहुत से दिव्य पुष्प और कार्योपयोगी औषधियाँ ले आयी, जिनसे वहाँ के पंचकालवेत्ता अनन्य भक्तों ने बड़ी भक्ति के साथ मन, वाणी और क्रिया द्वारा उन श्रीहरि का पूजन किया। ‘जैसी बातचीत उन्होंने की थी, उससे हमें विश्वास हो गया था कि निश्चय ही यहाँ भगवान् पधारे हुए हैं, परंतु उन्हीं की माया से मोहित होने के कारण हम उन्हें देख नहीं पाते थे। ‘बृहस्पते ! जब उस सुगन्धित वायु का चलना बंद हो गया और भगवान् को बलिसमर्पण का कार्य पूर्ण हो गया तब हम लोग मन-ही-मन चिन्ता से व्याकुल हो उठे। ‘वहाँ शुद्ध कुल वाले सहस्त्रों पुरुष थे; परंतु उनमें से किसी ने मन से अथवा दृष्टिपात द्वारा भी हम लोगों का सत्कार नहीं किया।वहाँ जो स्वस्थ मुनिगण थे, वे भी अनन्य भाव से भगवान् के भजन में ही मन लगाये रहते थे उन ब्रह्मभाव में स्थित मुनियों ने हम लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया। ‘हम लोग तपस्या से थककर अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। उस समय हम लोेगों से किसी शरीर रहित स्वस्थ प्राणी (देवता) ने कहा देवता बोले - मुनिवरों ! तुम लोगों ने श्वेतद्वीप निवासी श्वेतकाय इन्द्रिय रहित पुरुषों का दर्शन किया। इन श्रेष्ठ द्विजों के दर्शन होने से साक्षात् देवेश्वर भगवान् का ही दर्शन हो जाता है। मुनियो ! तुम सब लोग जैसे आये हो, वैसे ही शीघ्र लौट जाओ। भगवान् में अनन्य भक्ति हुए बिना किसी को किसी तरह भी उनका साक्षात् दर्शन नहीं हो सकता।। हाँ, बहुत समय तक उनकी भक्ति करते-करते तब पूरी अनन्यता आ जायगी, तब ज्योतिःपुज के कारण कठिनाई से देखे जाने वाले भगवान् का दर्शन सम्भव हो सकता है। विप्रवरा ! इस समय तुम्हें अभी बहुत बड़ा काम करना है। इस सत्ययुग के बीतने पर जब धर्म में किंचित् व्यतिक्रम आ जायगा और वैवस्वत मन्वन्तर के त्रेतायुग का आरम्भ होगा, उस समय देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये तुम लोग ही सहायक होगे। ‘यह अमृत के समान मधुर एवं अद्भुत वचन सुनकर हम लोग भगवान् की कृपा से अनायास ही अपने अभीष्ट स्थान पर आ पहुँचे। ‘बृहस्पते ! इस प्रकार हमने बड़ी भारी तपस्या की, हव्य-कव्यों के द्वारा भगवान् का पूजन किया, तो भी हमें उनका दर्शन न हो सका। फिर तुम कैसे अनायास ही उनका दर्शन पा लोगे ? ‘भगवान् नारायण सबसे महान् देवता हैं। वे ही संसार के स्रष्टा हैंऔर हव्य-कव्य के भोक्ता हैं। उनका आदि और अन्त नहीं है। उन अवयक्त परमेश्वर की देवता और दानव भी पूजा करते हैं’। इस प्रकार एकत के कहने से, द्वित और त्रित की सम्मति से तथा अन्य सदस्यों द्वारा अनुनय किये जाने से उदार बुद्धि बृहस्पति ने उस यज्ञ को समाप्त किया और भगवान् की पूजा की। राजा वसु भी यज्ञ पूरा करके प्रजा का पालन करने लगे। एक बार ब्रह्मशाप से उन्हें स्वर्ग से भ्रष्ट होना पड़ा था। उस समय वे पृथ्वी के भीतर रसातल में समा गये थे। नृपश्रेष्ठ ! सदा धर्म पर अनुराग रखने वाले सत्यधर्मपरायण राजा उपरिचर भूमि के भीतर प्रवेश करके भी नारायण- मन्त्र का जाप करते हुए भी उन्हीं की आराधना में तत्पर रहते थे। अतः उन्हीं की कृपा से वे पुनः ऊपर को उठे और भूतल से ब्रह्मलोक में जाकर उन्होंने परम गति प्राप्त कर ली। अनायास ही उन्हें निष्ठावानों की यह उत्तम गति प्रापत हो गयी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महत्ता का वर्णन विषयक तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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