महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 339 श्लोक 42-61

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एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (339) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्यायः: श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद

‘नारद ! मुझसे ही समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत् की उत्पत्ति होती है। क्षर और अक्षर तथा असत् और सत् भी मुझसे ही प्रकट हुए हैं। ‘यहाँ जो मेरे भक्त हैं, वे मुझमें ही प्रवेश करके मुक्त हैं। मैं ही पचीसवें तत्त्व निष्क्रिय पुरूष से जानने योग्य हूँ। ‘मैं निर्गुण, निष्फल, द्वन्द्वों से अतीत और परिग्रह से शून्य हूँ। तुम ऐसा न समझ लेना कि ये रूपवान् हैं, इसलिये दिखाई देते हैं; क्योंकि मैं सम्पूर्ण जगत् का ईश्वर और गुरु हूँ। ‘नारद ! तुम जो मुझे देख रहे हो, इस रूप में मैंने माया रची है। तुम मुझे सम्पूर्ण प्राणियों के गुणों से मुकत न जानो। ‘मैंने अपने वासुदेव, संकर्षण आदि चार स्वरूपों का तुम्हारे सामने भलीभाँति वर्णन किया है। मैं ही जीव नाम से प्रसिद्ध हूँ, मुझमें ही जीव की स्थिति है; परंतु तुम्हारे मन में ऐसा विचार नहीं उठना चाहिये कि मैंने जीव को देखा है। ‘ब्रह्मण ! मैं सर्वव्यापी और समस्त प्राणि समुदाय का अन्तरात्मा हूँ। सम्पूर्ण भूतसमुदाय और शरीरों के नष्ट हो जाने पर भी मेरा नाश नहीं होता है। ‘मुने ! ये महाभाग श्वेतद्वीप निवासी सिद्ध हैं। ये पहले मेरे अनन्य भक्त रहे हैं। ये तमोगुण और रजोगुण से मुक्त हो गये हैं; इसलिये मेरे भीतर प्रवेश करेंगे। ‘जो सम्पूर्ण जगत् के आदि, चतुर्मुख, अनिर्वचनीय स्वरूप, हिरण्यगर्भ एवं सनातन देवता हैं, वे ब्रह्मा मेरे बहुत से कार्यों का चिन्तन करने वाले हैं। ‘मेरे क्रोधवश ललाट से मेरे ही रुद्रदेव का प्राकट्य हुआ है। देखो, ये ग्यारह रुद्र मेरे दाहिने भाग में विराजमान हैं’। ‘इसी प्रकार मेरे बायें भाग में बारह आदित्य विराज रहे हैं। अग्रभाग में सुरश्रेष्ठ आठ वसु विद्यमान है। इन सबको प्रत्यक्ष देखो’। ‘मेरे पृष्ठभाग में भी दृष्टिपात करो, जहाँनासत्य औ दस्त्र - ये दोनों देववैद्य अश्विनीकुमार स्थित हैं। इनके सिवा मेरे विभिन्न अंगों में समसत प्रजातियों, सप्तर्षियों, सम्पूर्ण वेदों, सैंकड़ों यज्ञों, औषधियों तथा अमृत को भी देखो। तप तथा नाना प्रकार के यम-नियम भी यहाँ मूर्तिमान हैं’। ‘आठ प्रकार के ऐश्वर्य भी यहाँ एक ही जगह साकार रूपउ से प्रकट हैं, इन्हें देखो। श्री, लक्ष्मी, कीर्ति, पर्वतों सहित पृथ्वी तािा वेदमाता सरस्वती देवी भी मेरे भीतर विराजमान हैं, उन सबका दर्शन करो। नारद ! से नक्षत्रों में श्रेष्ठ आकाशचारी ध्रुव दिखायी दे रहे हैं, इनकी ओर भी दृष्टिपात करो’। ‘साधुशिरोमणि ! बादल, समुद्र, सरोवर और सरिताओं को भी मेरे भीतर मूर्तिूमान देख लो। चारों प्रकार के पितृगण भी सशरीर प्रकट हैं, इनका भी दर्शन कर लो’। ‘मेरे शरीर में स्थित हुए मूर्तिरहित इन तीन गुणों को भी मूर्तिमान देख लो। मुने देवकार्य से भी पितृकार्य बढ़कर है’। ‘एकमात्र में ही देवताओं और पितरों का भी पिता हूँ। मैं ही हयग्रीव रूप धारण करके समुद्र में वायव्यकोण की ओर रहता हूँ और विधिपूर्वक हवन किये हुए हव्य और श्रद्धापूर्वक समर्पित किये हुए कव्य का भी पान करता हूँ’। ‘पूर्वकाल में मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये ब्रह्मा ने स्वयं ही मुझ यज्ञपुरुष का यजन किया था। इससे प्रसन्न होकर मैंने उन्हें उत्तम वरदान दिये थे’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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