श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 14-28

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तृतीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद

वे सोचने लगे—यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेन के द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेना का विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वी का कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्दुम्न आदि के बल से बढ़े हुए यादवों का दुःसह दल बना ही हुआ है। जब ये मधुपान से मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपस में लड़ने लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असल में मेरे संकल्प करने पर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे। यों सोंचकर भगवान् ने युधिष्ठिर को अपनी पैतृक राजगद्दी पर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को सत्पुरुषों का मार्ग दिखाकर आनन्दित किया। उतरा के उदर में जो अभिमन्यु ने पुरुवंश का बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से नष्ट-सा हो चुका था; किन्तु भगवान् ने उसे बचा लिया। उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से तीन अश्वमेध यज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्ण के अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयों की सहायता से पृथ्वी की रक्षा करते हुए बड़े आनन्द से रहने लगे। विश्वात्मा श्रीभगवान् ने भी द्वारकापुरी में रहकर लोक और वेद की मर्यादा का पालन करते हुए सब प्रकार के भोग भोगे, किन्तु सांख्य योग की स्थापना करने के लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए। मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरता के निवास अपने श्रीविग्रह से लोक-परलोक और विशेषतया यादवों को आनन्दित किया तथा रात्रि में अपनी प्रियाओं के साथ क्षणिक अनुराग युक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया। इस तरह बहुत वर्षों तक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ-आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियों से वैराग्य हो गया। ये भोग-सामग्रियाँ ईश्वर के अधीन हैं और जीव भी उन्हीं के अधीन है। जब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्य हो गया तथा भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करने वाला भक्त तो उन पर विश्वास ही कैसे करेगा ? एक बार द्वारकापुरी में खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरों को चिढ़ा दिया। तब यादवकुल का नाश ही भगवान् को अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियों ने बालकों को शाप दे दिया। इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्ष से रथों पर चढ़कर प्रभास क्षेत्र को गये। वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थ के जल से पितर, देवता और ऋषियों का तर्पण किया तथा ब्राम्हणों को श्रेष्ठ गौएँ दीं। उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकार के सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राम्हणों को दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राम्हणों के लिये ही प्राण धारण करने वाले उन वीरों ने पृथ्वी पर सिर टेककर उन्हें प्रणाम की।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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