भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 71
अर्जुन की दुविधा और विषाद
अर्जुन ने एक प्राचीन श्लोक का उद्धरण देकर अपने भाई को उत्साहित किया थाः ’’ विजय की इच्छा रखने वाले लोग शक्ति और बल से उतना नहीं जीतते, जितना सत्य, करुणा, दया और पुण्य से। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय सुनिश्चित है।’’’ विजय उसके गुणों में से एक है और उसी प्रकार विनय भी।’’[१] कृष्ण अर्जुन को अपने-आप को शुद्ध करने और सफलता के लिए दुर्गा से प्रार्थना करष्ने की सलाह देता है। अर्जुन अपने रथ से उतर पड़ता है इस भक्ति से प्रसन्न हो कर देवी अर्जुन को वर देती है: ’’ हे पाण्डव, तू बहुत जल्दी अपने शत्रुओं को जीत लेगा।
स्वयं भगवान् नारायण तेरी सहायता करने के लिए विद्यमान हैं।’’ और फिर भी अर्जुन ने एक कर्मशील मनुष्य की भाँति अपने इस कार्य की उलझनों पर विचार नहीं किया। अपने गुरु की उपस्थिति, भगवान् की चेतना उसे यह समझने में सहायता देती है कि जिन शत्रुओं से उसे लड़ना है, वे उसके लिए प्रिय और पूज्य हैं। उसे न्याय की रक्षा और अवैध हिंसा के दमन के लिए सामाजिक बन्धनों को तोड़ना होगा। पृथ्वी पर भगवान् के राज्य की स्थापना भगवान् और मनुष्य के मध्य सहयोग से होने वाला कार्य है। सृष्टि के कार्य में मनुष्य भी समान भाग लेने वाला है।
24.एवमुक्ता हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तम्।।
हे भारत (धृतराष्ट्र), गुडाकेश (अर्जुन) के ऐसा कहने पर हषीकेश (कृष्ण) ने उस श्रेष्ठ रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया।
25.भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
डवाच पार्थ पश्येतान्समवेतान्कुरूनिति ।।
उसने भीष्म, द्रोण और सब राजाओं के सम्मुख खड़े होकर कहा: हे पार्थ (अर्जुन), इन सब इकट्ठे खड़े हुए कुरुओं को देखो।
26.तत्रापश्यत् स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्सखींस्तथा।।
वहाँ अर्जुन ने देखा कि उसके पिता, दादा, गुरु, मामा, भाई, पुत्र और पौत्र तथा मित्र भी खडे़ हुए थे।
27.श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।
और उन दोनों सेनाओं में श्वसुर और मित्र भी खडे़ थे। जब कुन्ती के पुत्र अर्जुन ने इन सब इष्ट-बन्धुओं को इस प्रकार खडे़ देखा तो,
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ युध्यध्वमनहकंरा यतोधर्मस्ततो जयः’’’ यतः कृष्णस्ततो जयः, वही 21, 11-12