महाभारत आदि पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-20

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अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टपञ्चाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

यज्ञ की समाप्ति एवं आस्‍तीक का सर्पों से वर प्राप्‍त करना

उग्रशवाजी कहते है- शौनक ! आस्‍तीक के सम्‍बन्‍ध में यह एक और अद्भुत बात मैने सुन रक्खी है कि जब राजा जनमेजय ने उनसे पूर्वोक्त रुप से वर मांगने का अनुरोध किया और उनके वर मांगने पर इन्‍द्र के हाथ से छूटकर गिरा हुआ तक्षक नाग आकाश में ही ठहर गया, तब महाराज जनमेजय को बड़ी चिन्‍ता हुई । क्‍योंकि अग्नि पूर्ण रुप से प्रज्‍वलित थी और उसमें विणि पूर्वक आहुतियां दी जा रही थीं तो भी भय से पीड़ित तक्षक नाग उस अग्नि में नहीं गिरा । शौनकजी ने पूछा- सूत ! उस यज्ञ में बडे़- बड़े मनीषी ब्राह्मण उपस्थित थे। क्‍या उन्‍हें ऐसे मन्‍त्र नहीं सूझे, जिनसे तक्षक शीघ्र अग्नि में आ गिरे? क्‍या कारण था जो तक्षक अग्निकुण्ड में न गिरा? । उग्रशवाजी ने कहा – शौनक ! इन्‍द्र के हाथ से छूटने पर नागप्रवर तक्षक भय से थर्रा उठा । उसकी चेतना लुप्त हो गयी। उस समय आस्‍तीक ने उसे लक्ष्‍य करके तीन बार इस प्रकार कहा- ठहर जा, ठहर जा, ठहर जा, । तब तक्षक पीड़ित हृदय से आकाश में उसी प्रकार ठहर गया, जैसे कोई मनुष्‍य आकाश और पृथ्‍वी के बीच में लटक रहा हो । तदनन्‍तर सभासदों के बार-बार प्रेरित करने पर राजा जनमेजय ने यह बात कही- ‘अच्‍छा, आस्‍तीक ने जैसा कहा है, वही हो ।। ‘यह यज्ञ कर्म समाप्‍त किया जाय। नागगण कुशल पूर्वक रहें और ये आस्‍तीक प्रसन्न हों । साथ ही सूतजी की कही हुई बात भी सत्‍य हो’ । जनमेजय के द्वारा आस्‍तीक को यह वरदान प्राप्‍त होते ही सब ओर प्रसन्नता बढ़ाने वाली हर्षध्‍वनि छा गयी और पाण्‍डवंशी महाराज जनमेजय का यज्ञ बंद हो गया। ब्राह्मण को वर देकर भरतवंशी राजा जनमेजय को भी प्रसन्नता हुई ।। उस यज्ञ में जो ॠत्विज और सदस्‍य पधारे थे, उन सबको राजा जनमेजय ने सैकड़ों और सहस्त्रों की संख्‍या में धन-दान किया । लोहिसाक्ष सूत तथा शिल्‍पी को, जिसने यज्ञ के पहले ही बता किया था कि इस सर्पसत्र को बंद करने में एक ब्राह्मण निमित्त बनेगा, प्रभावशाली राजा जनमेजय ने बहुत धन दिया। जिनके पराक्रम की कहीं तुलना नहीं है, उन नरेश्वर जनमेजय ने प्रसन्न होकर यथा योग्‍य द्रव्‍य और भोजन-वस्त्र आदि का दान करने के पश्चात शास्त्रीय विधि के अनुसार अवभृथ-स्‍नान किया ।। आस्‍तीक शुभ-संस्‍कारों से सम्‍पन्न और मनीषी विद्वान् थे। अपना कर्तव्‍य पूर्ण कर लेने के कारण वे कृतकृत्‍य एवं प्रसन्न थे। राजा जनमेजयन ने उन्‍हें प्रसन्नचित्त होकर घर के लिये विदा दी और कहा- ‘ब्रह्मन् ! मेरे भावी अश्वमेध नामक महायज्ञ में आप सदस्‍य हों और उस समय पुन: पधारने की कृपा करें’ । आस्‍तीक ने प्रसन्नता पूर्वक ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर राजी की प्रार्थना स्‍वीकार कर ली और अपने अनुपम कार्य का साधन करके राजा को संतुष्ट करने के पश्‍चात् वहां से शीघ्रता पूर्वक प्रस्‍थान किया । वे अत्‍यन्‍त प्रसन्न हो घर जाकर मामा और माता से मिले और उनके चरणों में प्रणाम करके वहां का सब समाचार सुनाया ।। उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! सर्वसत्र से बचे हुए जो-जो नाग मोह रहित हो उस समय वासुकि नाग के यहां उपस्थित थे, वे सब आस्‍तीक के मुख से उस यज्ञ के बंद होने का समाचार सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। आस्‍तीक पर उनका प्रेम बहुत बढ़ गया और उनसे बोले- ‘वत्‍स ! तुम कोई अभीष्ट वर मांग लो’ । वे सब-के-सब बार-बार यह कहने लगे- ‘बिद्वन् ! आज हम तुम्‍हारा कौन-सा प्रिय कार्य करें? वत्‍स ! तुमने हमें मृत्‍यु के मुख से बचाया है; अत: हम सब लोग तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो, तुम्‍हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करें?’ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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