महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-15
त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञापर्व )
युधिष्ठिर के मुख से अभिमन्यु वध का वृत्तान्त सुनकर अर्जुन की जयद्रथ को मारने के लिये शपथपूर्ण प्रतिज्ञा
युधिष्ठिर बोले – महाबाहो ! जब तुम संशप्तक सेना के साथ युद्ध के लिये चले गये, उस समय आचार्य द्रोण ने मुझे पकडने के लिये घोर प्रयत्न किया । वे रथों की सेना का व्यूह बनाकर बार-बार उद्योग करते थे और हम लोग रणक्षेत्र में अपनी सेना को व्यूहाकार में संघटित करके सब प्रकार से द्रोणाचार्य को आगे बढने से रोक देते थे । जब रथियों के द्वारा आचार्य रोक दिये गये और मैं सर्वथा सुरक्षित रह गया, तब उन्होंने अपने तीखे बाणों द्वारा हमें पीडा देते हुए हम लोगों पर तीव्र वेग से आक्रमण किया । द्रोणाचार्य से पीडित होने के कारण हम लोग उनके सैन्य व्यूह की ओर आंख उठाकर देख भी नहीं सकते थे, फिर युद्धभूमि में उसका भेदन तो कर ही कैसे सकते थे ? । तब हम सब लोग अनुपम पराक्रमी अपने पुत्र सुभद्रानन्दन अभिमन्यु से बोले – ‘तात ! तुम इस व्यूह का भेदन करो, क्योंकि तुम ऐसा करने में समर्थ हो’ । हमारे इस प्रकार आज्ञा देने पर उस पराक्रमी वीर ने अच्छे घोडे की भांति उस असह्य भार को भी वहन करने का ही प्रयत्न किया । तुम्हारे दिये हुए अस्त्र विद्या के उपदेश और पराक्रम से सम्पन्न बालक अभिमन्यु ने उस सेना में उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे गरुड समुद्र में घुस जाते हैं । तत्पश्चात हम लोग रणक्षेत्र में वीर सुभद्राकुमार अभिमन्यु के पीछे उस ब्यूह में प्रवेश करने की इच्छा से चले। हम भी उसी मार्ग से उसमें घुसना चाहते थे, जिसके द्वारा उसने शत्रुसेना में प्रवेश किया था । तात ! ठीक इसी समय नीच सिंधुनरेश राजा जयद्रथ ने सामने आकर भगवान् शंकर के दिये हुए वरदान के प्रभाव से हम सब लोगों को रोक दिया।
तदनन्तर द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहद्वल और कृतवर्मा – इन छ: महारथियों ने सुभद्राकुमार को चारों ओर से घेर लिया ।घिरा होने पर भी वह बालक पूरी शक्ति लगाकर उन सबको जीतने का प्रयत्न करता रहा, तथापि वे संख्या में अधिक थे, अत: उन समसत महारथियों ने उसे घेरकर रथहीन कर दिया । तत्पश्चात् दु:शासन पुत्र ने अभिमन्यु के प्रहार से भारी प्राण संकट में पडकर पूर्वोक्त महारथियों द्वारा रथहीन किये हुए अभिमन्यु को शीघ्र ही (गदा के आघात से) मार डाला।इसके पहले उसने हजारों हाथी, रथ, घोडे और मनुष्यों को मार डाला था । आठ हजार रथों और नौ सौ हाथियों का संहार किया था । दो हजार राजकुमारों तथा और भी बहुत से अलक्षित वीरों का वध करके राजा बृहद्वल को भी युद्धस्थल में स्वर्गलोक का अतिथि बनाया । इसके बाद परम धर्मात्मा अभिमन्यु स्वयं मृत्यु को प्राप्त हुआ।वह पुण्यात्माओं के लोकों में गया है । अपने पुण्य के बल से स्वर्ग लोक पर विजय पाने वाले धर्मात्मा पुरुषों को जो शुभ लोक सुलभ होते हैं, वे ही उसे भी प्राप्त हुए हैं । उसने कभी युद्ध में दीनता नहीं दिखायी । वह वीर शत्रुओं को त्रास और बान्धवों को आनन्द प्रदान करता हुआ अपने पितरों और मामा के नाम को बारंबार विख्यात करके अपने बहुसंख्यक बन्धुओं को शोक में डालकर मृत्यु को प्राप्त हुआ है। तभी से हम लोग शोक से संतप्त हैं और इस समय तुमसे हमारी भेंट हुई है । यही हम लोगों के लिये शोक बढाने वाली घटना घटित हुई है । पुरुषसिंह अभिमन्यु इस प्रकार स्वर्ग लोक में गया है।
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