महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 74 श्लोक 19-35
चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञापर्व )
‘अमित तेजस्वी सिंधुराज ! तुम स्वयं भी तो तो रथियों में श्रेष्ठ शूरवीर हो, फिर पाण्डु के पुत्रों से अपने लिये भय क्यों देख रहे हो ? । ‘मेरी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं तुम्हारी रक्षा के लिये उद्यत होकर युद्ध करेंगी, अत: सिंधुराज ! तुम भय मत मानो। तुम्हारा भय निकल जाना चाहिये’ ।संजय कहते हैं – राजन! इस प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन के आश्वासन देने पर जयद्रथ उसके साथ रात्रि के समय द्रोणाचार्य के पास गया । महाराज ! उस समय उसने द्रोणाचार्य के चरण छूकर विधिपूर्वक प्रणाम किया और पास बैठकर प्रणतभाव से इस प्रकार पूछा - । ‘दूर तक बाण चलाने में, लक्ष्य वेधने में , हाथ की फुर्ती में तथा अचूक निशाना मारने में मुझ में और अर्जुन में कितना अन्तर है, यह पूज्य गुरुदेव मुझे बतावें ।‘आचार्य ! मैं अर्जुन की और अपनी विद्याविषयक विशेषता को ठी ठीक जानना चाहता हूँ । आप मुझे यथार्थ बात बताइए’ । द्रोणाचार्य ने कहा – तात ! यद्यपि तुम्हारा और अर्जुन का आचार्यत्व मैंने समान रूप से ही किया है, तथापि सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों की प्राप्ति एवं अभ्यास और क्लेश सहन की दृष्टि से अर्जुन तुमसे बढे-चढे हैं । वत्स ! तो भी तुम्हें युद्ध में किसी प्रकार भी अर्जुन से डरना नहीं चाहिये, क्योंकि मैं उनके भय से तुम्हारी रक्षा करने वाला हूँ – इसमें संशय नहीं है । मेरी भुजाएं जिसकी रक्षा करती हों, उस पर देवताओं का भी जोर नहीं चल सकता । मैं ऐसा व्यूह बनाऊँगा, जिसे अर्जुन पार नहीं कर सकेंगे । इसलिये तुम डरो मत । उत्साहपूर्वक युद्ध करो और अपने क्षत्रिय-धर्म का पालन करो । महारथी वी ! अपने बाप-दादों के मार्ग पर चलो।तुमने वेदों का विधिपूर्वक अध्ययन करके भलीभांति अग्निहोत्र किया है । बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान भी कर लिय है । तुम्हें तो मृत्यु का भय करना ही नहीं चाहिये । जो मन्दभागी मनुष्यों के लिये दुर्लभ है, रणक्षेत्र में मृत्युरूप उस परम सौभाग्य को पाकर तुम अपने बाहुबल से जीते हुए परम उत्तम दिव्य लोकों में पहुंच जाओगे । कौरव-पाण्डव, वृष्णिवंशी योद्धो, अन्य मनुष्य तथा पुत्रसहित मैं – ये सभी अस्थिर (नाशवान्) हैं – ऐसा चिन्तन करो । बारी-बारी से हम सभी लोग बलवान् काल के हाथों मारे जाकर अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक में चले जायंगे । तपस्वी लोग तपस्या करके जिन लोकों को पाते हैं, क्षत्रिय-धर्म का आश्रय लेने वाले वीर क्षत्रिय उन्हें अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं । द्रोणाचार्य के इस प्रकार आश्वासन देने पर राजा जयद्रथ ने अर्जुन का भय छोड दिया और युद्ध करने का विचार किया । महाराज ! तदनन्तर आपकी सेवा में भी हर्षध्वनि होने लगी, सिंहनाद के साथ-साथ रणवाद्यों की भयंकर ध्वनि गूँज उठी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में जयद्रथ को आश्वासन विषयक चौहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
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