महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 76 श्लोक 15-27
षट्सप्ततितम (76) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )
केशव ! कल के युद्ध में आप देखेंगे कि इस पृथ्वी पर मेरे बाणों के वेग से कटे हुए राजाओं के मस्तक बिछ गये हैं ।कल मैं मांसभोजी प्राणियों को तृत्प कर दूँगा, शत्रुसैनिकों को मार भगाऊँगा, सुहृदों को आनन्द प्रदान करूँगा और सिंधुराज जयद्रथ को मथ डालूँगा ।सिन्धुराज जयद्रथ पापपूर्ण प्रदेश में उत्पन्न हुआ है । उसने बहुत से अपराध किये हैं । वह एक दुष्ट सम्बन्धी है । अत: कल मेरे द्वारा मारा जाकर अपने सुजनों शोक में निमग्न कर देगा ।सदा सब प्रकार से दूध-भात खाने वाले पापाचारी जयद्रथ को रणांगण में आप राजाओं सहित मेरे बाणों द्वारा विदीर्ण हुआ देखेंगे ।श्रीकृष्ण ! मैं कल सबेरे ऐसा युद्ध करूँगा, जिससे दुर्योधन रणक्षेत्र के भीतर संसार के दूसरे किसी धनुर्धर को मेरे समान नहीं मानेगा । नरश्रेष्ठ हृषीकेश ! जहां गाण्डीव-जैसा दिव्य धनुष है, मैं योद्धा हूँ और आप सारथि हैं, वहां मैं किसको नहीं जीत सकता ? ।भगवन ! आपकी कृपा से इस युद्धस्थल में कौनसी ऐसी शक्ति है, जो मेरे लिये असह्य हो । हृषीकेश ! आप यह जानते हुए भी क्यों मेरी निन्दा करते हैं? जनार्दन ! जैसे चन्द्रमा में काला चिह्न स्थिर है, जैसे समुद्र में जल की सत्ता सुनिश्चित है, उसी प्रकार आप मेरी इस प्रतिज्ञा को भी सत्य समझें ।प्रभो ! आप मेरे अस्त्रों का अनादर न करें । मेरे इस सुदृढ धनुष की अवहेलना न करें । इन दोनों भुजाओं के बल का तिरस्कार न करें और अपने इस सखा धनंजय का अपमान न करें । मैं संग्राम में इस प्रकार चलूँगा, जिससे कोई मुझे जीत न सके, वरं मैं ही विजयी होऊँ । इस सत्य के प्रभाव से आप रणक्षेत्र में जयद्रथ को मारा गया ही समझें । जैसे ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण में सत्य, साधुपुरुषों में नम्रता और यज्ञों में लक्ष्मी का होना ध्रुव सत्य है, उसी प्रकार जहां आप नारायण विद्यमान हैं, वहां विजय भी अटल है ।संजय कहते हैं - राजन् ! इन्द्र कुमार अर्जुन ने गर्जना करते हुए इस प्रकार उपर्युक्त बातें कहकर सम्पूर्ण इन्द्रियों के नियन्ता तथा सब कुछ करने में समर्थ अपने आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को स्वयं ही मन से सोचकर इस प्रकार आदेश दिया -।‘श्रीकृष्ण ! आप ऐसा प्रबन्ध कर लें कि कल सबेरा होते ही मेरा रथ तैयार हो जाय, क्योंकि हम लागों पर महान् कार्यभार आ पडा है ‘।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्व में अर्जुनवाक्य विषयक छिहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
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