महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 63-80
त्रिषष्टितम (63) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बालाकों में से जो पुरुष था, उसे स्वयं ग्रहण कर लिया। वही मत्स्य नामक धर्मात्मा एवं सत्यपतिज्ञ राजा हुआ। इधर वह शुभलक्षणा अप्सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी। भगवान् ब्रह्माजी ने पहले ही उससे कह दिया था कि ’तिर्यग योनि में पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानों को जन्म देकर शाप से छूट जाओगी।‘ अत: मछली मारने वाले मल्लाह ने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकों को जन्म देकर मछली का रुप छोड़ दिव्य रुप को प्राप्त हो गयी। इस प्रकार वह सुन्दरी अप्सरा सिद्ध महर्षि और चारणों के पथ से स्वर्गलोक चली गयी । उन जुड़वी संतानों में जो कन्या थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गन्ध आती थी। अत: राजा ने उसे मल्लाह को सौंप दिया और कहा- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे’ । वह रुप और सत्व (सत्य) से संयुक्त तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न होने के कारण ‘सत्यवती’ नाम से प्रसिद्व हुई । मछेरों के आश्रय में रहनेके कारण वह पवित्र मुस्कान वाली कन्या कुछ काल तक मत्स्य गन्धा नाम से ही विख्यात रही। वह पिता की सेवा के लिये यमुनाजी के जल में नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थयात्रा के उद्देश्य से सब ओर विचरने वाले महर्षि पराशर ने उसे देखा। वह अतिशय रुप सौन्दर्य से सुशोभित थी। सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी । उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्य वुस कुमारी को देखकर परम बुद्विमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्छा प्रकट की । और कहा- कल्याणी ! मेरे साथ संगम करो। वह बोली- भगवन्! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ॠषि खड़े हैं । ‘और हम दोनों को देख रहे हैं। ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली भगवान पराशर ने कुहरे की सृष्टि की । जिससे वहां का सारा प्रदेश अंधकार से आच्छादित-सा हो गया। महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्या आश्चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी । सत्यवती ने कहा- भगवन ! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्या हूं ।। निष्पाप महर्षे! आपके संयोग से मेरा कन्या भाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा। द्विजश्रेष्ठ ! कन्या भाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूं। बुद्विमान मुनिश्वर ! अपने कन्यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन ! इस बात पर भलिभांति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये । सत्यवती के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले- ‘भीरु ! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्या ही रहोगी। भामिनी ! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते ! आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्यर्थ नहीं गया है’ । महर्षि के ऐसा कहने पर सत्यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्ध होने का वरदान मांगा। भगवान् पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोबाञ्छित वर दे दिया । तदनन्तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती नारीपन के समागमोचित गुण (सद्य: ॠतुस्नान आदि) से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम किया। उसके शरीर से उत्तम गन्ध फैलने के कारण पृथ्वी पर उसका गन्धवती नाम विख्यात हो गया। इस पृथ्वी पर
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