महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-9

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षडविंश (26) अध्‍याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवदगीता पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: षडविंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन को युद्ध के लिये उत्‍साहित करते हुए भगवान् के द्वारा नित्‍यानित्‍य वस्‍तु के विवेचनपूर्वक सांख्‍ययोग, कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन सम्‍बन्‍ध- पहले अध्‍याय में गीता के उपदेश की प्रस्‍तावना के रूप में दोनों सेनाओं के महारथियों का और उनकी शंखध्‍वनि‍ का वर्णन करके अर्जुन का रथ दोनो सेनाओं के बीच में खड़ा करने की बात कही गयी; उसके बाद दोनों सेनाओं में स्थित स्‍वजन समुदाय को देखकर शोक और मोह के कारण अर्जुन के युद्ध से निवृत्‍त हो जाने की और शस्‍त्र-अस्‍त्रों को छोडकर विषाद करते हुए बैठ जाने की बात कहकर उस अध्‍याय की समाप्ति की गयी। ऐ‍सी स्थिति में भगवान् श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से क्‍या बात कही और किस प्रकार उसे युद्ध के लिये पुनः तैयार किया; यह सब बतलाने की आवश्‍यकता होने पर संजय अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए दूसरे अध्‍याय का आरम्‍भ करते है |

संजय बोले – उस प्रकार करूणा से व्‍याप्‍त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्‍याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा ।

श्रीभगवान् बोले – हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्‍त हुआ ? क्‍योंकि न तो यह श्रेष्‍ठ पुरूषों द्वारा आचरित है, न स्‍वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है ।इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्‍त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! हृदय की तुच्‍छ दुर्बलता को त्‍यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा । अर्जुन बोले – हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्‍म पितामह और द्रोणाचार्य के विरूद्ध लड़ूँगा ? क्‍योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं । इसलिये इन महानुभाव गुरूजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्‍न भी खाना कल्‍याणकारक समझता हूँ; क्‍योंकि गुरूजनों को मारकर भी इस लोक में रूधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा।। सम्‍बन्‍ध- इस प्रकार अपना निश्‍चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्‍चय में शंका उत्‍पन्‍न हो गयी, तब वे फिर कहने लगे – हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्‍ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्‍हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्‍मीय धृतराष्‍ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्‍वभाववाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्‍याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्‍योंकि मैं आपका शिष्‍य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये । क्‍योंकि भूमि में निष्‍कण्‍टक, धन-धान्‍य सम्‍पन्‍न राज्‍य को और देवताओं के स्‍वामीपने को प्राप्‍त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके । संजय बोले – हे राजन् ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्‍तर्यामी श्री कृष्‍ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्‍द भगवान् से युद्ध नहीं करूँगा यह स्‍पष्‍ट कहकर चुप हो गये । हे भरतवंशी धृतराष्‍ट्र ! अर्न्‍तयामी श्रीकृष्‍ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह व1चन बोले। सम्‍बन्‍ध – उपर्युक्त प्रकार से चिन्‍तामग्‍न अर्जुन ने जब भगवान् के शरण होकर अपने महान् शोक की निवृत्ति का उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोक का राज्‍यसुख इस शोक की निवृत्ति का उपाय नहीं है, तब अर्जुन को अधिकारी समझकर उसके शोक और मोह को सदा के लिये नष्‍ट करने के उद्देश्‍य से भगवान् पहले नित्‍य और अनित्‍य वस्‍तु के विवेचनपूर्वक सांख्‍ययोग की दृष्टि से भी युद्ध करना कर्तव्‍य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्‍यनिष्‍ठा का वर्णन करते हैं- श्रीभगवान् बोले – हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्‍य मनुष्‍यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है; परन्‍तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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