महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 31-37
षडविंश (25) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवदगीता पर्व)
सम्बन्ध – यहां तक भगवान् ने सांख्ययोग के अनुसार अनेक युक्तियों द्वारा नित्य शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार और अकर्ता आत्मा के एकत्व, नित्यत्व, अविनाशित्व आदि का प्रतिपादन करके तथा शरीरों को विनाशशील बताकर आत्मा के या शरीरों के लिये अथवा शरीर और आत्मा के वियोग के लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया । साथ ही प्रसंगवश आत्मा को जन्मने-मरनेवाला मानने पर भी शोक करने के अनौचित्य का प्रतिपादन किया और अर्जुन को युद्ध करने के लिये आज्ञा दी । अब सात श्लोकों द्वारा क्षात्रधर्म के अनुसार शोक करना अनुचित सिद्ध करते हुए अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित करते हैं [१]आत्मा को अविकार्य कहकर अव्यक्त प्रकृति से उसकी विलक्षणता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि समस्त इन्द्रियों और अन्त:करण प्रकृति के कार्य है, वे अपनी कारणरूपा प्रकृति को विषय नहीं कर सकते, इसलिये प्रकृति भी अव्यक्त और अचिन्त्य है; किंतु वह निर्विकार नहीं है, उसमें विकार होता है और आत्मा में कभी किसी भी अवस्था में विकार नहीं होता । अतएव प्रकृति से आत्मा अत्यन्त विलक्षण है। [२]भगवान् का यह कथन उन अज्ञानियों की दृष्टि में है, जो आत्मा का जन्मना-मरना नित्य मानते हैं। उनके मतानुसार जो मरणधर्मा है, उसका जन्म होना निश्चित ही है; क्योंकि उस मान्यता में किसी की मुक्ति नहीं हो सकती । जिस वास्तविक सिद्धान्त में मुक्ति मानी गयी है, उसमें आत्मा को जन्मने-मरने वाला भी नहीं माना गया है, जन्मना-मरना सब अज्ञानजनित है । तथापि बहुत से आश्चर्यमय संकेतों द्वारा महापुरूष उसका लक्ष्य कराते है, यही उनका आश्चर्य की भाँति वर्णन करना है । वास्तव में आत्मा वाणी का अविषय होने के कारण स्पष्ट शब्दों में वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता । तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है यानि तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है । हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वारा रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं । यदि तु इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा । तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरूष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है । और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे । तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दु:ख और क्या होगा ? या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन ! तु युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।
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