महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 10-20
पञ्चविंश (25) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवदगीता पर्व)
सम्बन्ध- पहले भगवान् आत्मा की नित्यता और निर्विकारता का प्रतिपादन करके आत्मदृष्टि से उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं – न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे । जैसा जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरूष मोहित नहीं होता । अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा-अवस्थारूप स्थूल शरीर का विकार अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्म शरीर का विकार भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिये तत्व को जानने वाला और पुरूष मोहित नहीं होता। हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखों को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति – विनाशशील और अनित्य है; इसलिये भारत ! उनको तू सहन कर । क्योंकि हे पुरूषश्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरूष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।सम्बन्ध – बारहवें और तेरहवें श्लोक में भगवान् ने आत्मा की नित्यता और निर्विकारता का प्रतिपादन किया गया तथा चौदहवें श्लोक में इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोग को अनित्य बतलाया, किन्तु आत्मा क्यों नित्य है और ये संयोग क्यों अनित्य है ? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया; अतएव श्लोक में भगवान् नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचन की रीति बतलाने के लिये दोनों के लक्षण बतलाते हैं – असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरूषों द्वारा देखा गया है[१]। इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तु युद्ध कर । सम्बन्ध- अर्जुन ने जो यह बात कही थी कि मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमतर होगा उसका समाधान करने के लिये अगले श्लोकों में आत्मा को मरने या मारने वाला मानना अज्ञान है, यह कहते हैं – जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है । यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता[२]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तत्त्व को जानने वाले महापुरूषों द्वारा असत् और सत् का विवेचन करके जो यह निश्चय कर लेना है कि जिस वस्तु का परिवर्तन और नाश होता है, जो सदा नहीं रहती, वह असत् है – अर्थात असत् वस्तु का विद्यमान रहना सम्भव नहीं और जिसका परिवर्तन और नाश किसी भी अवस्था में किसी भी निमित्त से नहीं होता, जो सदा विद्यमान रहती है, वह सत् है – अर्थात सत् का कभी अभाव होता ही नहीं – यही तत्त्वदर्शी पुरूषों द्वारा उन दोनों का तत्त्व देखा जाना है।नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् – द्दश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ।
- ↑ इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने को योग्य नहीं है ।।