महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 21-30

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षडविंश (26) अध्‍याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवदगीता पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: षडविंश अध्याय: श्लोक 21-30 का हिन्दी अनुवाद

हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरूष इस आत्‍मा को नाशरहित, नित्‍य, अजन्‍मा और अव्‍यय जानता है, वह पुरूष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है[१] सम्‍बन्‍ध – यहाँ यह शंका होती है कि आत्‍मा का जो एक शरीर से सम्‍बन्‍ध छूटकर दूसरे शरीर से सम्‍बन्‍ध होता है, उसमें उसे अत्‍यन्‍त कष्‍ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है ? इस पर कहतें हैं – जैसे मनुष्‍य पुराने वस्‍त्रों को त्‍यागकर दूसरे नयें वस्‍त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्‍मा पुराने शरीरों को त्‍यागकर दूसरे नये शरीरों को त्‍यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्‍त होता है[२] । सम्‍बन्‍ध – आत्‍मा का स्‍वरूप दुर्विज्ञेय होने के कारण पुनः तीन श्‍लोकों द्वारा प्रकारान्‍तर से उसकी नित्‍यता, निराकारता और निर्विकारता – का प्रतिपादन करते हुए उसके विनाश की आशंका से शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं – इस आत्‍मा को शस्‍त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता । क्‍योंकि यह आत्‍मा अच्‍छेद्य है; यह आत्‍मा अदाह्य, अल्केद्य और निःसंदेह अशोष्‍य है तथा यह आत्‍मा नित्‍य, सर्वव्‍यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन हैयह आत्‍मा अव्‍यक्त है, वह आत्‍मा अचिन्‍तय है और वह आत्‍मा विकार रहित कहा जाता है। इससे से अर्जुन ! इस आत्‍मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्‍य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। सम्‍बन्‍ध – उपर्युक्त श्‍लोकों में भगवान ने आत्‍मा को अजन्‍मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; अब दो श्‍लोकों द्वारा आत्‍मा को औपचारिक रूप से जन्‍मने – मरनेवाला मानने पर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है – किन्‍तु यदि तू इस आत्‍मा को सदा जन्‍मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्‍य नहीं है । क्‍योंकि इस मान्‍यता के अनुसार जन्‍मे हुए की मृत्‍यु निश्चित है।[३] इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने को योग्‍य नहीं है । सम्‍बन्‍ध – अब अगले श्‍लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्‍य करके भी शोक करना नहीं बनता – हे अर्जुन ! सम्‍पूर्ण प्राणी जन्‍म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्‍या शोक करना है ? सम्‍बन्‍ध- आत्‍मतत्तव अत्‍यन्‍त दुर्बोव होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान् ने उपुर्यक्त श्‍लोंकों द्वारा भिन्‍न–भिन्‍न प्रकार से उसके स्‍वरूप का वर्णन किया; अब अगले श्‍लोक में उस आत्‍मतत्त्‍व के दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं – कोई एक महापुरूष ही इस आत्‍मा को आश्‍चर्य की भांति देखता है[४] और वैसे ही दूसरा कोई महापुरूष ही इसके तत्त्‍व का आश्‍चर्य की भांति वर्णन करता है[५] तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरूष ही इसे आश्‍चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता है[६]। हे अर्जुन ! यह आत्‍मा सबके शरीर में सदा ही अवध्‍य है। इस कारण सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्‍य नहीं है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्‍मा को अविकार्य कहकर अव्‍यक्त प्रकृति से उसकी विलक्षणता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि समस्‍त इन्द्रियों और अन्‍त:करण प्रकृति के कार्य है, वे अपनी कारणरूपा प्रकृति को विषय नहीं कर सकते, इसलिये प्रकृति भी अव्‍यक्त और अचिन्‍त्‍य है; किंतु वह निर्विकार नहीं है, उसमें विकार होता है और आत्‍मा में कभी किसी भी अवस्‍था में विकार नहीं होता । अतएव प्रकृति से आत्‍मा अत्‍यन्‍त विलक्षण है।
  2. वास्‍तव में अचल और अक्रिय होने के कारण आत्‍मा का किसी भी हालत में गमागमन नहीं होता । पर जैसे घड़े को एक मकान से दूसरे मकान में ले जाने के समय उसके भीतर के आकाश का अर्थात घटाकाश का भी घट के सम्‍बन्‍ध से गमागमन सा प्रतीत होता है, वैसे ही सूक्ष्‍म शरीर का गमागमन होने से उसके सम्‍बन्‍ध से आत्‍मा में भी गमागमन की प्रतीति होती है। अतएव लोगों को समझाने के लिये आत्‍मा में गमागमन की औपचारिक कल्‍पना की जाती है ।
  3. भगवान् का यह कथन उन अज्ञानियों की दृष्टि में है, जो आत्‍मा का जन्‍मना-मरना नित्‍य मानते हैं। उनके मतानुसार जो मरणधर्मा है, उसका जन्‍म होना निश्चित ही है; क्‍योंकि उस मान्‍यता में किसी की मुक्ति नहीं हो सकती । जिस वास्‍तविक सिद्धान्‍त में मुक्ति मानी गयी है, उसमें आत्‍मा को जन्‍मने-मरने वाला भी नहीं माना गया है, जन्‍मना-मरना सब अज्ञानजनित है ।
  4. जैसे मनुष्‍य लौकिक दृश्‍य वस्‍तुओं को मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा इदंबुद्धि से देखता है, आत्‍मदर्शन वैसा नहीं है; आत्‍मा का देखना अद्भुत और अलौकिक है। जब एकमात्र चेतन आत्‍मा से भिन्‍न किसी की सत्ता ही नहीं रहती, उस समय आत्‍मा स्‍वयं अपने द्वारा ही अपने को देखता है। उस दर्शन में द्रष्टा, दृश्‍य और दर्शन की त्रिपुटी नहीं रहती, इसलिये वह देखना आश्चर्य की भाँति है ।
  5. जितने भी उदाहरणों से आत्‍मतत्त्‍व समझाया गया है, उनमें कोई भी उदाहरण पूर्ण रूप से आत्‍मतत्त्‍व को समझाने वाला नहीं है। उसके किसी अंश को ही उदाहरणों द्वारा समझाया जाता है; क्‍योंकि आत्‍मा के सदृश अन्‍य कोई वस्‍तु है ही नहीं, इस अवस्‍था में कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से कैसे लागू हो सकता है ? तथापि बहुत से आश्चर्यमय संकेतों द्वारा महापुरूष उसका लक्ष्‍य कराते है, यही उनका आश्चर्य की भाँति वर्णन करना है । वास्‍तव में आत्‍मा वाणी का अविषय होने के कारण स्‍पष्ट शब्‍दों में वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता ।
  6. जिसके अन्‍त:करण में पूर्ण श्रद्धा और आस्तिक भाव नहीं होता, जिसकी बुद्धि शुद्ध और सूक्ष्‍म नहीं होती – ऐसा मनुष्‍य इस आत्‍मतत्त्‍व को सुनकर भी संशय और विपरित भावना के कारण इसके स्‍वरूप को यथार्थ नहीं समझ सकता; अतएव इस आत्‍मत्त्‍व का समझना अनधिकारी के लिये बड़ा ही दुलर्भ है ।

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