महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 41-51
षड्विंश (26) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवदगीता पर्व)
हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं । सम्बन्ध – अब तीनों श्लोकों में सकाम भाव को त्याज्य बतलाने के लिये सकाम मनुष्यों के स्वभाव, सिद्धान्त और आचार व्यवहार का वर्णन करते हैं – हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है – ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित यानि दिखाऊ शोभायुक्त वाणी-को कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है; उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरूषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती । हे अजुर्न ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादी द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित, योगक्षेमको न चाहने वाल[१]और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो । सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्त्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता ह[२]। सम्बन्ध – इस प्रकार समबुद्धि रूप कर्मयोग का और उसके फल का महत्व बतलाकर अब दो श्लोकों में भगवान् कर्मयोग का स्वरूप बतलाते हुए अर्जुन को कर्मयोग में स्थित होकर कर्म करने के लिये कहते हैं – तेरा कर्म करने में ही अधिकार ह[३]उसके फलों में कमी नहीं ह[४]। इसलिये तू कर्मों के फलका हेतु मत ह[५]तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो । हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर[६]समत्व ही योग कहलाता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति को योग कहते है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है; सांसारिक भोगों की कामना का त्याग कर देने के बाद भी शरीर निर्वाह के लिये मनुष्य की योगक्षेम में वासना रहा करती है; अतएव उस वासना का भी सर्वथा त्याग कराने के लिये यहाँ अर्जुन को निर्योगक्ष्ोम होने को कहा गया है ।
- ↑ इस दृष्टान्त का अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्य को अमृत के समान स्वादु और गुणकारी अथाह जल से भरा हुआ जलाशय मिल जाता है, उसको जैसे जल के लिये (वापी-कूप-तडागादि) छोटे-छोटे जलाशयों से कोई प्रयोजन नहीं रहता, वैसे ही जिसको परमानन्द के समुद्र पूर्णब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, उसको आनन्द की प्राप्ति के लिये वेदोक्त कर्मों के फलरूप भोगों से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता । वह सर्वथा पूर्णकाम और नित्यवृप्त हो जाता है ।
- ↑ जैसे सरकार के द्वारा लोगों को आत्मरक्षा के लिये या प्रजा की रक्षा के लिये अपने पास नाना प्रकार के शस्त्र रखने और उनके प्रयोग करने का अधिकार दिया जाता है और उसी समय उनके प्रयोग के नियम भी उनको बतला दिये जाते हैं, उसके बाद यदि कोई मनुष्य उस अधिकार का दुरूपयोग करता है तो उसे दण्ड दिया जाता है और उसका अधिकार भी छीन लिया जाता है, वैसे ही जीव को जन्म–मृत्यु रूप संसार बन्धन से मुक्त होने के लिये और दूसरों का हित करने के लिये मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित यह मनुष्य शरीर देकर इसके द्वारा नवीन कर्म करने का अधिकार दिया गया है । अत: जो इस अधिकार का सदुपयोग करता है, वह तो कर्मबन्धन से छूटकर परमपद को प्राप्त हो जाता है और जो सदुपयोग करता है, वह दण्ड का भागी होता है तथा उससे यह अधिकार छीन लिया जाता है अर्थात उसे पुन: सूकर-कूकरादि योनियों में ढकेल दिया जाता है । इस रहस्य को समझकर मनुष्य को इस अधिकार का सदुपयोग करना चाहिये ।
- ↑ मनुष्य कर्मों का फल प्राप्त करने में कभी किसी प्रकार भी स्वतन्त्र नहीं है । उसके कौन से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको किस प्रकार प्राप्त होगा – इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है अथवा न उससे बच ही सकता है । मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और ही है ।
- ↑ मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा किये हुए शास्त्र विहित कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति, वासना, आशा,
- ↑ योग में स्थित होकर कर्म करने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि केवल सिद्धि और असिद्धि में ही समत्व रखने से काम नहीं चलेगा, बल्कि प्रत्येक क्रिया के करते समय भी तुमको किसी भी पदार्थ में, कर्म में, या उसके फल में अथवा किसी भी प्राणी में विषमभाव न रखकर नित्य समभाव में स्थिर रहना चाहिये ।