महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 29 श्लोक 17-26

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एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद

शक्र! मैं एकान्त में आनन्दपूर्वक रहता हूं तथा द्वन्द्वों और परिग्रहों से दूर हूं। अहिंसा और दम का पालन किया करता हूं। ऐसी दशा में मैं ब्राहमणत्व पाने योग्य क्यों नहीं हूं ? पुरंदर! मैं धर्मज्ञ होकर भी केवल माता के दोष से इस अवस्था में आ पहुंचा हूं। यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है ? प्रभो! निश्चय ही पुरूषार्थ के द्वारा दैव का उल्लंघन नहीं किया जा सकता; क्योंकि मैं जिस के लिये ऐसा प्रयत्नशील हूं उस ब्राहमणत्व को नहीं उपलब्ध कर पाता हूं। धर्मज्ञ देवराज! यदि ऐसी अवस्था में मैं आपका कृपामात्र हूं अथवा यदि मेरा कुछ भी पुण्य शेष हो तो आप मुझे वर प्रदान कीजिये। वैषम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तब बल और वृत्रासुर को मानने वाले इन्द्रने मतंग से कहा-’तुम मुझ से वर मांगो।’ महेन्द्र से प्रेरित होकर मतंग ने इस प्रकार कहा- देव पुरंदर! आप ऐसी कृपा करें जिससे मैं इच्छानुसार विचरने वाला तथा अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करनेवाला आकाशचारी देवता होउं। ब्राहमण और क्षत्रिय के विरोध से रहित हो मैं सर्वत्र पूजा एवं सत्कार प्राप्त करूं तथा मेरी अक्षय कीर्ति का विस्तार हो। मै आपके चरणों में मस्तक रखकर आपकी प्रसन्नता चाहता हूं। आप मेरी इस प्रार्थनाकोसफल बनाइये। इन्द्र ने कहा-वत्स! तुम स्त्रियों के पूजनीय होओगे। ’छन्दोदेव’ के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी और तीनों लोकों में तुम्हारी अनुपम कीर्ति का विस्तार होगा। इस प्रकार उसे वर देकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। मतंग भी अपने प्राणों का परित्याग करके उतम स्थान (ब्रहमलोक)-को प्राप्त हुआ। भारत! इस तरह यह ब्राहमणत्व परम उतम स्थान है। जैसा कि इन्द्र का कथन हैं, उसके अनुसार यह इस जीवन में दूसरे वर्ण के लोगों के लिये दुर्लभ है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में इन्द्र और मतंग का संवादविषयक उनतीसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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