श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 34-42

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तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः (7)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद

दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का क्या फल है ? प्रवास और आपत्ति के समय मनुष्य का क्या धर्म होता है ? निष्पाप मैत्रेयजी! धर्म के मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान् किस आचरण से सन्तुष्ट होते हैं और किन पर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये। द्विजवर! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रों को बिना पूछे भी उनके हित की बात बलता दिया करते हैं। भगवन्! उन महदादि तत्वों का प्रलय कितने प्रकार का है ? तथा जब भगवान् योगनिद्रा में शयन करते हैं, तब उनमें से कौन-कौन तत्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? जीव का तत्व, परमेश्वर का स्वरुप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्य का पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? पवित्रात्मन् विद्वानों ने उस ज्ञान की प्राप्ति के क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ? क्योंकि मनुष्यों को ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्य की प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती। ब्रह्मन्! माया-मोह के कारण मेरी विचार दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अतः श्रीहरि लीला का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से मैंने जो प्रश्न किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये। पुण्यमय मैत्रेयजी! भगवतत्व के उपदेश द्वारा जीव को जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर उसे अभय कर देने में जो पुण्य होता है, समस्त वेदों के अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादि से होने वाला पुण्य उस पुण्य के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकता।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! जब कुरु-श्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार पुराण विषयक प्रश्न किये, तब भगवच्चर्या के लिये प्रेरित किये जाने के कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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