श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 25-33

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तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः (8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद

उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में त्रिलोकी का संग्रह किये हुए हैं। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करने वाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष भूषा से सुसज्जित है। अपनी-अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करने वाले भक्तजनों को कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलों का दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अँगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं। सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्णी भौहें, कानों में झिलमिलाते हुए कुण्डलों की शोभा, बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधरों की कान्ति एवं कोलार्तिहारी मुसकान से युक्त मुखारविन्द के द्वारा वे अपने उपासकों का सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं। वत्स! उनके नितम्बदेश में कदम्ब कुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्षःस्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखा वाले श्रीवत्स चिन्ह की अपूर्व शोभा हो रही है। वे अव्यक्तमूल चन्दन वृक्ष के समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियों से सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्त्रों शाखाएँ हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणों ने लपेट रखा है। वे नागराज अनन्त के बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जल से घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वत पर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचर के आश्रय हैं; शेषजी के फणों पर जो सहस्त्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वत के सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थल में विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भ से प्रकट हुआ रत्न है। प्रभु के गले में वेदरूप भौरों से गुंजायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओं को भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन मीन बेरोक-टोक विचरण करने वाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आस-पास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं। तब विश्व रचना की इच्छा वाले लोक विधाता ब्रम्हाजी ने भगवान् के नाभि सरोवर से प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इसके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया। रजोगुण से व्याप्त ब्रम्हाजी प्रजा की रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टि के कारण रूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोक रचना के लिये उत्सुक होने के कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरि से चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभु की स्तुति करने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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