श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-16

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:०५, २५ अगस्त २०१५ का अवतरण
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तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन

विदुरजी ने कहा—मुनिवर! भगवान् नारायण के अन्तर्धान हो जाने पर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रम्हाजी ने अपने देह और मन से कितने प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की ? भगवन्! इनके सिवा मैंने आपसे और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका भी क्रमशः वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयों को दूर कीजिये; क्योंकि आप सभी बहुज्ञों में श्रेष्ठ हैं।

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! विदुरजी के इस प्रकार पूछने पर मुनिवर मैत्रेयजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने ह्रदय में स्थित उन प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देने लगे।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—अजन्मा भगवान् श्रीहरि ने जैसा कहा था, ब्रम्हाजी भी उसी प्रकार चित्त को अपने आत्मा श्रीनारायण में लगाकर सौ दिव्य वर्षों तक तप किया। ब्रम्हाजी ने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायु के झकोरों से, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिस पर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं। प्रबल तपस्या एवं ह्रदय में स्थित आत्मज्ञान से उनका विज्ञान बल बढ़ गया और उन्होंने जल के साथ वायु को पी लिया। फिर जिस पर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाश व्यापी कमल को देखकर उन्होंने विचार किया कि ‘पूर्वकल्प में लीन हुए लोकों को मैं इसी से रचूँगा’। तब भगवान् के द्वारा सृष्टि कार्य में नियुक्त ब्रम्हाजी ने उस कमलकोश में प्रवेश किया और उस एक के ही भूः, भुवः, स्वः—ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकों के रूप में विभाग किये जा सकते थे। जीवों के भोग स्थान के रूप में इन्हीं तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है; जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें महः, तपः, जनः और सत्यलोक रूप ब्रम्हलोक की प्राप्ति होती है ॥ ९ ॥ विदुरजी ने कहा—ब्रह्मन्! आपने अद्भुत कर्मा विश्वरूप श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति कि बात कही थी, प्रभो! उसका कृपया विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये।

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेल में अपने-आपको ही सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान् की माया से लीन होकर ब्रम्हरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्तमूर्ति काल के द्वारा भगवान् ने पुनः पृथक् रूप से प्रकट किया है। यह जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत-वैकृत-भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है। और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार से होता है। (अब पहले मैं दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन करता हूँ) पहली सृष्टि महतत्व की है। भगवान् की प्रेरणा से सात्वादि गुणों में विषमता होना ही इसका स्वरुप है। दूसरी सृष्टि अहंकार की है, जिससे पृथ्वी अहंकार की है, जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पंचभूतो को उत्पन्न करने वाला तन्मात्रावर्ग रहता है। चौथी सृष्टि इन्द्रियों की है, यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अन्तर्गत है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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