महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 117 श्लोक 41-64

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सप्तदशाधिकशततम (117) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 41-64 का हिन्दी अनुवाद

महाराज! उस समय अर्जुन ने आपकी सेना को भगाकर दुःशासन पर बहुत से सायकों का प्रहार किया। वे समस्त लोहमुखबाण आपके पुत्र दुःशासन को विदीर्ण करके उसी प्रकार उसी प्रकार धरती में समा गये जैसे सर्प बांबी में प्रवेश करते हैं। तत्पश्चा त शक्तियशाली अर्जुन ने दुःशासन के घोड़ों तथा सारथी को भी मार गिराया और विविशति को भी बीस बाणों से मारकर उसे रथहीन कर दिया। इसके बाद पुःन झुकी हुई गांठवाले पांच बाणों द्वारा उसे अत्यन्त घायल कर दिया। तदनन्तर श्वेातवाहन कुन्तीकुमार अर्जुन ने कृपाचार्य, विकर्ण तथा शल्य को भी लोहे के बने हुए बहुसे बाणें द्वारा रथहीन कर दिया। माननीय नरेश ! इस प्रकार रथहीन हुए वे सब महारथी कृपाचार्य, शल्य, विकण, दुःशासन तथा विविशति अर्जुन से परास्त हो उस समर भूमि में इधर-उधर भाग गये।
भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार दसवें दिन के पूर्वाहन काल में उन महारथियों को पराजित करके कुन्ती।कुमार अर्जुन रणभूमि में घूमरहित अग्नि के समान प्रकाशित होने लगे। महाराज! इसी प्रकार अंशुमाली सूर्य के समान अन्यान्य राजाओं को भी वे अपने बाणों की वर्षा से संतप्त करने लगे। ओर भारत! उन सब महारथियों को बाण वर्षा द्वारा विमुख करके अर्जुन ने संग्राम भूमि में कोरव-पाण्डवों की सेनाओं के बीच रक्त की बहुत बड़ी नदी बहा दी। रथियों द्वारा बहुत-से हाथी तथा रथ समूह नष्ट कर दिये गये। हाथियों ने कितने ही रथ चौपट कर दिये और पैदल सिपाहियों ने सवारों सहित बहुत से घोड़े मार गिराये। हाथी, घोडे़ तथा रथों पर बैठकर युद्ध करने वाले सैनिकों के शरीर और मस्तक बीच-बीच से कटकर सब दिशाओं में गिर रहे थे। राजन! वहां गिरे और गिराये जाते हुए कुण्डल और अंगदधारी महारथी राजकुमारों के मृत शरीरों से सारी युद्ध भूमि आच्छादित हो रही थी।
उनमें से कितने ही रथों के पहियों से कट गये थे और कितनों ही को हाथियों ने अपनी सूंडों से पकड़कर धरती पर दे मारा था एवं कितने ही पैदल सैनिक तथा अपने अश्वों सहित घुड़सवार योद्धा वहां से भाग गये थे। वहां सब ओर हाथी तथा रथयोद्धा धराशायी हो रहे थे। पहिये, जूएं और ध्वजों के छिन्न-भिन्न हो जाने से बहुसंख्यक रथ धरती पर बिखरे पड़े थे।
हाथी, घोडे़ तथा रथियों के समुदाय के रक्त से ढकी और भीगी हुई वह सारी युद्ध भूमि शरद् ऋतु की संध्या के लाल बादलों के समान शोभा पा रही थी। कुत्ते, कौए, गीद्ध, भेड़ियें तथा गीदड़ आदि विकराल पशु-पक्षी वहां अपना आहार पाकर हर्षनाद करने लगे। सम्पूर्ण दिशाओं में अनेक प्रकार की वायु प्रवाहित हो रही थी। सब ओर राक्षस और भूतगण गरजते दिखायी देते थे। सोने के हार बिखरे पड़े थे, बहुसंख्यक पताकाएं सहसा वायु से प्रेरित होकर फहराती दिखायी देती थी। सहस्त्रों सफेद छत्र इधर-उधर गिरे थे, ध्वजों सहित सैकड़ों और हजारों महारथी सब ओर बिखरे दिखायी देते थे। बाणों की वेदना से आतुर हो पताकाओं सहित बड़े-बड़े हाथी चारों दिशाओं में चक्कर काट रहे थे। नरेन्द्र! गदा, शक्ति और धनुष धारण किये हुए बहुत-से क्षत्रिय सब ओर पृथ्वी पर पड़े दृष्टिगोचर हो रहे थे। महाराज! तदनन्तर भीष्म ने दिव्य अस्त्र प्रकट करते हुए वहां समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते कुन्तीकुमार अर्जुन पर धावा किया। उस समय कवचधारी शिखण्डी ने युद्ध के लिये आगे बढते हुए भीष्म पर आक्रमण किया। शिखण्डी को सामने देख भीष्म ने अपने अग्नि के समान तेजस्वी उस दिव्यास्त्र को समेट लिया। राजन! इसी बीच में मध्यम पाण्डव श्वेढतवाहन अर्जुन तुरंत ही पितामह भीष्म को मूर्छित करके आपकी सेना का संहार करने लगे।

इस प्रकार श्री महाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मपर्व में संकुलयुद्ध विषयक एक सौ सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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