महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-23
षडशीतितम (86) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
संजय का धृतराष्ट्र को उपालमभ संजय कहते हैं - महाराज मैंने सब कुछ प्रत्यक्ष देखा है, वह सब आपको सभी बताउॅगां । स्थिर होकर सुनने की इच्छा कीजिये । इस परिस्थितियो में आपका महान् अन्याय ही कारण है।भरत श्रेष्ठ राजन्। जैसे पानी निकल जाने पर वहां पुल बांधना व्यर्थ है, उसी प्रकार इस समय आपका यह विलाप भी निष्फल है। आप शोक न कीजिये। काल के इस अद्भुत विधान का उन्नघन करना असम्भव हैं। भरतभूषण।शोक त्याग दीजिये। यह सब पुरातन प्रारब्ध का फल है। यदि आप कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर तथा अपने पुत्रों को पहले ही जूएं से रोक देते तो आप पर यह संकट नही आता । फिर जब युद्ध का अवसर आया , उसी समय यदि आपने क्रोध में भरे हुए अपने पुत्रों को बल पूर्वक रोक दिया होता तो आप पर यह संकट नहीं आ सकता था। यदि आप पहले ही कौरवों को यह आज्ञा दे देते कि इस दुर्विनीत दुर्योधन को कैद कर लो तो आप पर यह संकट नही आता । आपकी बुद्धि के विपरीत का फल पाण्डव, पान्चाल, समस्त वृष्णिवंशी तथा अन्य जो-जो नरेश हैं , वे सभी भोगेंगे। यदि आपने अपने पुत्र को सन्मार्ग में स्थापित करके पिता कर्तव्य पालन करते हुए धर्म के अनुसार बर्ताव किया होता तो आप पर यह संकट नही आता। आप संसार बडे बुद्धिमान् समझे जाते हैं तो भी आपने सनातनधर्म का परित्याग करके दुर्योधन , कर्ण और शकुनि के मतका अनुसरण किया है। राजन् आप स्वार्थ में सने हुए है। आपका यह सारा विलाप-कलाप मैंने सुन लिया। यह विषमिश्रित मधु के समान उपर से ही मीठा है इसके भीतर घातक कटुता भरी हुई है। अपनी महिमा से च्युत न होने वाले भगवान् श्रीकृष्ण पहले आपका जैसा सम्मान करते थे, वैसा उन्होंने पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीष्म तथा द्रोणाचार्य का भी समादर नहीं किया है। परंतु जब से श्रीकृष्ण ने यह जान लिया है कि आप राजोचित धर्म से नीचे गिर गये हैं , तब वे आपका उस तरह अधिक आदर नही करते हैं । पुत्रों को राज्य दिलाने की अभिलाषा रखने वाले महाराज। कुन्ती के पुत्रों को कठोर बातें सुनायी जाती थीं और आप उनकी उपेक्षा करते थे आज उसी अन्याय का फल आपको प्राप्त हुआ हे । निष्पाप नरेश। आपने उन दिनों बाप-दादों के राज्य को तो अपने अधिकार में कर ही लिया था; फिर कुन्ती के पुत्रों द्वारा जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वी विशाल साम्राज्य भी हड़प लिया।राजा पाण्डु ने भूमण्डल का राज्य जीता और कौरवों के यश का विस्तार किया था । फिर धर्मपरायण पाण्डवों ने अपने पिता से भी बढ़-चढ़ कर राज्य और सुर्य यश का प्रसार किया है। परंतु उनका वैसे महान् कर्म भी आपको पाकर अत्यन्त निष्फल हो गया; क्योकि आपने राज्य के लोभ में पडकर उन्हें अपने पैतृक राज्य से भी वन्छित कर दिया। नरेष्वर। आज जब युद्ध का अवसर उपस्थित है, ऐसे समय में जो आप अपने पुत्रों के नाना प्रकार के दोष बताते हुए उनकी निंदा कर रहे हे हैं यह इस समय आपकी शोभा नही देता है। राजा लोगरणक्षेत्र में युद्ध करते हुए अपने जीवन की रक्षा नही कर रहे हैं । वे क्षत्रियषिरोकणि नरेश पाण्डवों की सेना में घुसकर युद्ध करते हैं।श्रीकृष्ण, अर्जुन, सात्यकि तथा भीमसेन जिस सेना की रक्षा करते हों , उस के साथ कौरवों के सिवा दूसरा कौन युद्ध कर सकता है। जिनके योद्धा गुडाकेश अर्जुन हैं, जिनके मन्त्री भगवान् श्रीकृष्ण हैं तथा जिनकी ओर से युद्ध करने वाले योद्धा सात्यकि और भीमसेन हैं, उनके साथ कौरवों तथा उनके चरणचिहों पर चलने वाले अन्य नरेशो को छोडकर दूसरा कौन मरणधर्मा धनुर्धर युद्ध करने का साहस कर सकता है। अवसर को जानने वाले, क्षत्रिय -धर्मपरायण, शूरवीर राजा लोग जितना कर सकते हैं, कौरवपक्षी नरेश उतना पराक्रम करते हैं। पुरूषसिंह पाण्डवों के साथ कौरवों का जिसे प्रकार अत्यन्त संकट पूर्ण युद्ध हुआ है, वह सब आप ठीक -ठीक सुनिये।
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