महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 16-27

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:४६, २५ अगस्त २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम (10) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद

मरुत्त ने कहा- विप्रवर! आँधी के साथ ही जोर-जोर से होने वाली वज्र की भयंकर गड़गड़ाहट सुनायी दे रही है। इससे रह-रहकर मेरा ह्रदय काँप उठता है। आज मने में तनिक भी शान्ति नहीं है। सवंर्त ने कहा- नरेन्द्र! तुम्हें इन्द्र के भयंकर वज्र से आज भयभीत नही होना चाहिये। मैं वायु का रूप धारण करके अभी इस वज्र को विष्फल किये देता हूँ। तुम भय छोड़कर मुझ से कोई दूसरा वर माँगो। बताओं, मैं तुम्हारी कौन-सी मानसिक इच्छा पूर्ण करूँ? मरुत्त ने कहा। ब्रह्मर्षे! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे साक्षात इन्द्र मेरे यज्ञ में शीघ्रतापर्वूक पधारें और अपना हविष्य-भाग ग्रहण करें। साथ ही अन्य देवता भ अपने-अपने स्थान पर आकर बैठ जायँ और सब लोग एक साथ आहुति रूप में प्राप्त हुए सोमरस का पान करें।
(तदनन्तर संवर्त ने अपने मंत्र बल से सम्पूर्ण देवताओं का आवाहन किया और) मरुत्त से कहा। राजन! ये इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के द्वारा अपनी स्तुति सुनते शीघ्रगामी अश्वों से युक्त रथ की सवारी से आ रहे हैं। मैंने मंत्रबल से आज इस यज्ञ में इनका आवाहन किया है। देखा, मंत्रशक्ति से इनका शरीर इधर खिंचता चला आ रहा है। तत्पश्चात देवराज इन्द्र अपने रथ में उन सफेद रंग के अच्छे घोड़ों को जोतकर देवताओं को साथ ले सोमपान की इच्छा से अनुपम पराक्रमी राजा मरुत्त की यज्ञशाला में आ पहुँचें।देववृन्द के साथ इन्द्र को आते देख राजा मरुत्त ने अपने पुरोहित संवर्त मुनि के साथ आगे बढ़कर उनकी आगवानी की और बड़ी प्रसन्नता के साथ शास्त्रीय विधि से उनका अग्रपूजन किया।
सवंर्त ने कहा- पुरुहूत इन्द्र! आपका स्वागत हैद्ध विद्वन! आपके यहाँ पधारने से इस यज्ञ की शोभा बहुत बढ़ गयी है। बल और वृत्रासुर का वध करने वाले देवराज! मेरे द्वारा तैयार किया हुआ यह सोमरस प्रस्तुत है, आप इसका पान कीजिये। मरुत्त ने कहा। सुरेन्द्र! आपको नमस्कार है। आप मुझे कल्याणमयी दृष्टि से देखिये। आपके पदार्पण से मेरा यज्ञ और जीवन सफल हो गया। बृहस्पतिजी के छोटे भाई ये विप्रवर संवर्तजी मेरा यज्ञ करा रहे हैं।इन्द्र ने कहा- नरेन्द्र! आपके इन गुरुदेव को मैं जानता हूँ। ये बृहस्पतिजी के छोटे भाई और तपस्या के धनी हैं। इनका तेज दु:सह है। इन्हीं के आवाहन से मुझे आना पड़ा है। अब मैं आप पर प्रसन्न हूँ और मेरा सारा क्रोध दूर हो गया हैं। संवर्त ने कहा- देवराज! यदि आप प्रसन्न हैं तो यज्ञ में जो-जो कार्य आवश्यक है, उसका स्वयं ही उपदेश दीजिये तथा सुरेन्द्र! स्वयं ही सब देवताओं के भाग निश्चित कीजिये। देव! यहाँ आये हुए सब लोग आपकी प्रसन्नता का प्रत्यक्ष अनुभव करें।
व्यासजी ने कहते हैं- राजन! संवर्त के यों कहने पर इन्द्र ने स्वयं ही सब देवताओं को आज्ञा दी कि ‘तुम सब लोग अतयन्त समृद्ध एवं चित्र- विचित्र ढंग के हजारों अच्दे सभा-भवन बनाओ। ‘गन्धर्वों और अप्सराओं के लिये ऐसे रंगमण्डप का निर्माण करो, जिसमें बहुत से सुन्दर स्तम्भ लगे हों। उनके रंगमंच पर चढ़ने के लिये बहुत सी सीढ़ियाँ बना दो। यह सब कार्य शीघ्र हो जाना चाहिये। यह यज्ञशाला स्वर्ग के समान सुन्दर एवं मनोहर बना दो। जिसमें सारी अप्सराएँ नृत्य कर सकें’।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।