महाभारत शल्य पर्व अध्याय 2 श्लोक 47-63

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द्वितीय (2) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 47-63 का हिन्दी अनुवाद

संजय ! मैं उन शुभकारक भाग्यों से वंचित हूँ और पुत्रों से भी हीन हूँ। आज इस वृद्धावस्था में शत्रु के वश में पड़कर न जाने मेंरी कैसी दशा होगी ? सामर्थ्‍यशाली संजय ! मेरे लिये वनवास के सिवा और कोई कार्य श्रेष्ठ नहीं जान पड़ता । अब कुटुम्बीजनों का विनाश हो जाने पर बन्धु-बान्धवों से रहित हो मैं वन में ही चला जाऊँगा। संजय ! पंख कटे हुए पक्षी की भाँति इस अवस्था को पहुँच हुए मेरे लिये वनवास स्वीकार करने के सिवा दूसरा कोई श्रेयस्कर कार्य नहीं है। जब दुर्योधन मारा गया, शल्य का युद्ध में संहार हो गया तथा दुःशासन, विविंशति और महाबली विकर्ण भी मार डाले गये, तब मैं उस भीमसेन का उच्च स्वर से कहा गया वचन कैसे सुनूँगा, जिसने अकेले ही समरांगण में मेरे सौ पुत्रों का वध का डाला। दुर्योधन के वध से दुःख और शोक से संतप्त हुआ में बारंबार बोलने वाले भीमसेन की कठोर बातें नहीं सुन सकूँगा।

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार पुत्रों एवं की चिन्ता में डूबकर बारंबार मूर्छित होनेवाले, संतप्त एवं बूढे़ भरतश्रेष्ठ राजा अम्बिकानन्दन, धृतराष्ट्र, जिनके बन्धु-बान्धव मार डाले गये थे, दीर्धकालतक विलाप करके गरम साँस खींचते और अपने पराभव की बात सोचते हुए महान दुःख से संतप्त हो उठे तथा गवल्गणपुत्र संजय से पुनः का यथावत् समाचार पूछने लगे।

धृतराष्ट ने कहा- संजय ! भीष्म और द्रोणाचार्य के वध का तथा युद्ध-संचालन सेनापति सूतपुत्र कर्ण के विनाश का समाचार सुनकर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? मेरे पुत्र युद्धस्थल में जिस-जिस वीर को अपना सेनापति बनाते थे, पाण्डव उस-उसको थोडे़ ही समय में मार गिराते थे।। युद्ध के मुहाने पर तुम लोगों के देखते-देखते भीष्म जी किरीटधारी अर्जुन के हाथ से मारे गये। इसी प्रकार दोणाचार्य का भी तुम सब लोंगों के सामने ही संहार हा गया। इसी तरह प्रतापी सूतपुत्र कर्ण भी राजाओं सहित तुम सब लोगों के देखते-देखते किरीटधारी अर्जुन के हाथ से मारा गया। महात्मा विदुरने मुझसे से पहले ही कहा था कि दुर्योधन के अपराध से इस प्रजा का विनाश हो जायगा। संसार में कुछ मूढ़ मनुष्य ऐसे होते हैं, जो अच्छी तरह देखकर भी नहीं पाते । मैं भी वैसा ही मूढ़ हूँ । मेरे लिये वचन वैसा ही हुआ (मैं उसे सुनकर भी न सुन सका)। दूरदर्शी धर्मात्मा विदुर ने पहले जो कुछ कहा था, वह सब उसी रूप में सामने आया है। सत्यवादी महात्मा का वचन सत्य होकर ही रहा। संजय ! पहले दैव से मेरी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये मैंने जो विदुरजी की बात नहीं मानी, मेरे उस अन्याय का फल जैसे-जैसे प्रकट हुआ है, उसका वर्णन करो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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