महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 7 श्लोक 16-28

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सप्तम (7) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पुरुषों मे प्रधान वीर और कमल के समान कान्तिमान् दुर्योधन सोने का बना हुआ विचित्र कवच धारण करके राजाों के समुदाय में अल्प धूमवाली अग्नि एवं बादलोें के बीच में सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है। हाथ में ढाल - तलवार लिये हुए आपके वीर पुत्र सुषेण और सत्यसेन मन में हर्ष और उत्साह लिये समर में जूझने की इच्छा रखकर चित्रसेन के साथ खड़े हैं। भारत ! लज्जाशील भयंकर आयुधों वाला शीघ्रभोजी और देख्चाने में सुन्दर जरासंध का प्रथम पुत्र राजकुमार अदृढ़, चित्रायुध, श्रुतवर्मा, जय, शल, सत्यव्रत और दुःशल - ये सभी श्रेष्ठ पूरुष यु; के लियसे अपनी सेनाओं के साथ खड़े हैं। प्रत्येक युद्ध में शत्रुओं का संहार करने वाला और अपने को शूरवीर मानने वाला एक राजकुमार, जो जुआरियों का सरदार है तथा रथ, घोड़े, हाथी और पैदलों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चलता है, आपके लिये युद्ध करने को तैयार खड़ा है। वीर श्रतायु, धृतायुध, चित्रांगद और वीर चित्रसेन - ये सभी प्रहार कुशल स्वाभिमानी और सत्य प्रतिज्ञ नरश्रेष्ठ आपके लिये यंद्ध करने को तैयार खड़े हैं।
नरेन्द्र ! कर्ण का महामना एवं सत्य प्रतिज्ञ पुत्र समरांगण में युद्ध की इच्छा से डटा हुआ है। इसके सिवा कर्ण के दो पुत्र और हैं, जो उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता और शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले हैं, वे भी आपकी ओर से युद्ध के लिये तैयार खड़े हैं। इन दोनों ने ऐसी विशाल सेना को अपने साथ ले रक्खा है, जिसका अल्प धैर्य वाले वीरों के लिये भेदन करना कठिन है। राजन् ! इनसे तथा अन्य अनन्त प्रभावशाली श्रेष्ठ एवं प्रणान योद्धाओं से घिरा हुआ कुरुराज दुर्योधन हाथियों के समूह में देवराज इन्द्र के समान विजय के लिये खड़ा है ।
धृतराष्ट्र ने कहा - संजय ! अपने पक्ष के जो जीवित योद्धा हैं, एवं उनसे भिन्न जो मारे जा चुके हैं, उनका तुमने यथार्थ रूप से वर्णन कर दिया। इससे जो परिणाम होने वाला है, उसे अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा मैं स्पष्ट रूप से समझ रहा हूँ ( मेरे पक्ष की हार सुनिश्चित है )। वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! यह कहते हुए ही अम्बिका नन्दन धृतराष्ट्र उस समय यह सुनकर कि अपनी सेना के प्रमुख वीर मारे गये, अधिकांश सेना नष्ट हो गयी और बहुत थोड़ी शेष रह गयी है, मूर्छित हो गये । उनकी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। वे अचेत होते - होते बोले - ‘संजय ! दो घड़ी ठहर जाओ। तात ! यह महान् अपिंय संवाद सुनकर मेरा मन व्याकुल हो गया है, चेतना लुप्त हो रही है और मैं अपने अंगों को धारण करने में असमर्थ हूँ। ऐसा कहकर अम्बिका नन्दन राजा धृतराष्ट्र भ्रान्तचित्त ( मूर्छित ) हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संजय वाक्य विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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