महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 90 श्लोक 1-13

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:०३, २५ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==नवतितम (90) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)== <div style="text-ali...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

नवतितम (90) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व:नवतितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के बाणों से हताहत होकर सेनासहित दुःषासन का पलायन धृतराष्‍ट्र ने पूछा-संजय। किरीटधारी अर्जुन की मार खाकर उस अग्रगामी सैन्यदल के पलायन कर जाने पर वहां रणक्षेत्र में किन वीरों ने अर्जुन पर धावा किया था।अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि अपना मनोरथ सफल न होने से परकोटे की भांति खडे़ हुए द्रोणाचाय्र का आश्रय लेकर सर्वथा निर्भय शकटव्यूह में घुस गये हों। संजय ने कहा- निष्पाप नरेश। जब इन्द्रपुत्र अर्जुन ने पूवो्रक्त प्रकार से आप की सेना के वीरो को मारकर उसे हतोत्साह एवं भागने के लिये विवश कर दिया, सभी सैनिक पलायन करने का ही अवसर देखने लगा उनके उपर निरन्तर श्रेष्‍ठ बाणों की मार पडने लगी , उस समय वहां संग्राम में कोई भी अर्जुन की ओर आंख उठाकर देख न सका।राजन् सेना की वह दुरवस्था देखकर आपके पुत्र दुःशासन को बड़ा क्रोध हुआ और वह युद्ध के लिये अर्जुन के सामने जा पहुंचा।उसने अपने-आप को सुवर्णमय विचित्र कवच के द्वारा ढक लिया था, उसके मस्त कपर जाम्बूनद सुवर्ण का बना हुआ षिरस्त्राण शोभा पा रहा था। वह दुःसह पराक्रम करने वाला शूरवीर था।महाराज् दुःषासनने अपनी विशाल गजसेना द्वारा अर्जुन को इस प्रकार चारों ओर से घेर लिया , मानो वह सारी पृथ्वी को ग्रस लेने के लिये उद्यत हो। हाथियों के घंटो की ध्वनि , शंख्ड़नाद, धनुष की टंकार और गजराजों के चिग्घाड़ने के शब्द से पृथ्वी, दिशाएं तथा आकाश-ये सभी गूंज उठे थे। उस समय दुःशासन दो घड़ी के लिये अत्यन्त भयंकर एवं दारूण हो उठा। महावतों द्वारा अंकुशो के हांके जाने पर लम्बी सूंड उठाये और क्रोध में भरे पंखवारी पर्वतों के समान उन हाथियों को बडे़ वेग से अपने उपर आते देख मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी अर्जुन ने बड़े जोर से सिहंनाद करके शत्रुओं की उस गजसेना का बिना किसी भय के बाणों द्वारा संहार कर डाला। वायु द्वारा उपर उठाये हुए उॅंची-उॅंची तरंगो से युक्त महासागर के समान उस गजसैन्य किरीटधारी अर्जुन ने मकर के समान प्रवेश किया। जैसे प्रलयकाल में सूर्यदेव सीमा का उल्लघन करके तपने लगते हैं, उसी प्रकार शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले अर्जुन सम्पूर्ण दिशाओं में असीम पराक्रम करते हुए दिखायी देने लगे।घोड़ों की टापों के शब्द से, रथ के पहियों की उस घरघरा -हटसे, उच्च स्वर किये जाने वाले गर्जन-तर्जन की उस आवाज -से, धनुष की प्रत्यक्षा की उस टंकार से , भांति-भांति के वाद्यों की ध्सनिसे, पाच्ंजन्य के हुंकार से , देवदत्त नामक शंक के गम्भीर घोष से तथा गाण्डीव की टंकार-ध्वनि से मनुष्यों और हाथियों-के वेगा मन्द पअ़ गये और वे सब-के सब भय के मारे अचेत हो गये। सव्यसाची अर्जुन विशधर सर्प के समान भयंकर बाणों के द्वारा उन्हे विदीर्ण कर दिया। गाण्डीय धनुष द्वारा चलाये हुए लाखों तीखे बाण युद्धस्थल में खडे़ हुए उन हाथियों के सम्पूर्ण अगों में बिंध गये थे।अर्जुन के बाणो की मार खाकर बउे़ जोर से चीत्कार करके वे हाथी पंख कटे हुए पर्वतों के समान पृथ्वी पर निरन्तर गिर रहे थे।


« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।