महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 121 श्लोक 21-42

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विंशत्‍यधिकशततम (121) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद

उनके धनुष की टंकार ध्वपनि वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर सभी प्राणी और समस्तष भूपाल डर गये। तब रथियों में श्रेष्ठु पाण्डुीपुत्र अर्जुन ने शरशय्या पर सोये हुए सम्पूसर्ण शस्त्र धारियों में उत्तम भरतशिरो‍मणि भीष्मठ की रथ द्वारा ही परिक्रमा करके अपने धनुष पर एक तेजस्वी बाण-का संधान किया और सब लोगों के देखते-देखते मन्त्र ञ्चारणपूर्वक उस बाण को पर्जन्‍यास्त्र से संयुक्ति करके भीष्म के दाहिने पार्श्व में पृथ्वी पर उसे चलाया। फिर तो शीतल, अमृत के समान मधुर तथा दिव्यय सुगंध एवं दिव्य रस से संयुक्त जल की सुंदर स्वणच्छे धारा ऊपर की ओर उठ (कर भीष्म के मुख में पड़) ने लगी। उस शीतल जल धारा से अर्जुन ने दिव्यसकर्म एवं पराक्रम वाले कुरूश्रेष्ठ भीष्म को तृप्तं कर दिया। इन्द्रण के समान पराक्रमी अर्जुन के उस अद्भंतकर्म से वहां बैठे हुए समस्तठ भूपाल बडे़ विस्मंय को प्राप्तल हुए। अर्जुन का वह अलौकिक कर्म देखकर समस्त कौरव सर्दी की सतायी हुई गौओं के समान थर-थर कापंने लगे। वहां बैठे हुए नरेशगण आश्र्चर्य से चकित हो सब ओर अपने दुपट्टे हिलाने लगे। चारों ओर शङ्क और नगाडो़की गम्भीर ध्वशनि गंज उठी। राजन्! उस जल से तृप्तं होकर शांतनुनंदन भीष्मा ने अर्जुन से समस्तभ वीर नरेशों के समीप उनकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा- ‘महाबाहु कौरवनंदन! तुममें ऐसे पराक्रम का होना आश्र्चर्य की बात नहीं है। अमित तेजस्वीा वीर! मुझे नारदजी ने पहले ही बता दिया था कि तुम पुरातन महर्षि नर हो और नारायणस्वतरूप भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से इसी भूतलपर ऐसे-ऐसे महान् कर्म करोगे, जिन्हेंय निश्र्चय ही सम्पूसर्ण देवताओं के साथ देवराज इन्द्रा भी नहीं कर सकते।
‘पार्थ! जानकार लोग तुम्हेंय सम्पूरर्ण क्षत्रियों की मृत्यु्रूप जानते हैं। तुम भूतलपर मनुष्यों में श्रेष्ठ् और धनुर्धरों में प्रधान हो। ‘जंगम प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं, पक्षियों में पक्षिराज गरूड़ श्रेष्ठ माने जाते हैं, सरिताओं में समुद्र श्रेष्ठ् हैं और चौपायों में गौ उत्तम मानी गयी है। ‘तेजोमय पदार्थों में सूर्य श्रेष्ठ हैं, पर्वतों में हिमालय महान् हैं, जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठम है और तुम सम्पूेर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ हो । ‘मैंने, विदुर ने, द्रोणाचार्य ने, परशुराम जी ने, भगवान् श्रीकृष्ण‍ तथा संजय ने भी बार-बार युद्ध न करने की सलाह दी है; परंतु दुर्योधन ने हमलोगों की बातें नहीं सुनीं। ‘दुर्योधन की बुद्धि विपरीत हो गयी है, वह अचेत-सा हो रहा है; इसलिये हम लोगों की बात पर विश्वास नहीं करता है। वह शास्त्रों की मर्यादा का उल्लहङ्घन कर रहा है। इसलिये भीमसेन के बल से पराजित हो मारा जाकर रणभूमि में दीर्घकाल के लिये सो जायेगा। भीष्म जी की यह बात सुनकर कौरव राज दुर्योधनमन-ही-मन बहुत दुखी हो गया। तब शांतनुनंदन भीष्म ने उसकी ओर देखकर कहा-राजन् ! मेरी बात पर ध्यान दो और क्रोधशून्यं हो जाओ। ‘दुर्योधन! बुद्धिमान् अर्जुन ने जिस प्रकार शीतल, अमृत के समान मधुर गंधयुक्त् जल की धारा प्रकट की है, उसे तुमने प्रत्य्क्ष देख लिया है। ‘इस संसार में ऐसा पराक्रम करने वाला दूसरा कोई नहीं है। आग्नेय, वारूण, सौम्यल, वायव्य , ऐन्द्रस, पाशुपत, ब्राह्म, पारमेष्ठ्यत, प्राजापत्यन, धात्र, त्वानष्र्प्, सावित्र और वैवस्वात आदि सम्पूंर्ण दिव्यारस्त्रों को इस समस्त् मानव-जगत् में एकमात्र अर्जुन अथवा देवकीनंदन भगवान् श्रीकृष्ण जानते हैं। दूसरा कोई यहां इन अस्त्रों को नहीं जानता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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