महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 121 श्लोक 43-57

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एकविंशत्‍यधिकशततम(121) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद

‘तात! पाण्डुयपुत्र अर्जुन को युद्ध में किसी प्रकार भी जीतना असम्भिव है। जिन महामनस्वीक, पुरूष के ये अलौकिक कर्म प्रत्यसक्ष दिखायी देते हैं; जो धैर्यवान्, युद्ध में शूरता दिखाने वाले तथा संग्राममें सुशोभित होने वाले हैं, राजन् ! उन अस्त्रे विद्या के विद्वान् अर्जुन के साथ इस समर भूमि में तुम्हा री शीघ्र संधि हो जानी चाहिये। इसमें विलम्ब्त‍ न हो। ‘तात ! कुरूश्रेष्ठो ! जब तक महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण अपने लोगों के प्रेम के अधीन हैं, तभी तक शूरवीर अर्जुन के साथ तुम्हामरी संधि हो जाय तो ठीक है ।।४५।। ‘तात! जब तक अर्जुन झुकी हुई गाठ वाले बाणों द्वारा तुम्हामरी सारी सेना का विनाश नहीं कर ढालते है, तभी तक उनके साथ तुम्हाुरी संधि हो जानी चाहिये । ‘राजन्! इस समर भूमि में मरने से बचे हुए तुम्हाेरे सहोदर भाई जब तक मौजूद है और जब तक बहुत-से नरेश भी जीवन धारण कर रहे हैं, तभी तक तुम अर्जुन के साथ संधि कर लो ।
‘तात! जब तक युधिष्ठिर रणभूमि में क्रोध से प्रज्वीलित नेत्र होकर तुम्हाकरी सारी सेना को भस्मऔ नहीं कर डालते हैं, तभी-तक उनके साथ तुम्हें संधि कर लेनी चाहिये। ‘महाराज! नकुल-सहदेव तथा पाण्डुतपुत्र भीमसेन-ये सब मिलकर जब तक तुम्हाहरी सेना का सर्वनाश नहीं कर डालते हैं, तभी तक पाण्डुववीरों के साथ तुम्हािरा सौहार्द स्था्पित हो जाय, यही मुझे अच्छाल लगता है। तात ! मेरे साथ ही इस युद्ध का भी अंत हो जाय। तुम पाण्डावों साथ संधि कर लो। ‘अनघ! मैंने जो बातें तुमसे कही हैं, वे तुम्हे रूचिकर प्रतीत हो। मैं संधि को ही तुम्हा९रे तथा कौरव कुल के लिये कल्या्णकारी मानता हूं। ‘राजन्! तुम क्रोध छोड़कर कुंतीकुमारों के साथ संधि स्थालपित कर लो। अर्जुन ने आज तक जो कुछ किया है, उतना ही बहुत है। मुझ भीष्म के जीवन का अंत होने से (तुम्हाकरे वैर का भी अंत हो जाय) तुम लोगों में प्रेम-संबंध स्थाकपित हो और जो लोग मरने से बचे हैं, वे अच्छीो तरह जीवि‍त रहें। इसके लिये तुम प्रसन्नु हो जाओ। ‘तुम पाण्डऔवों का आधा राज्यं दे दो। धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रिपस्थ् चले जायं। कौरवराज ! ऐसा करने से तुम राजाओं में मित्रद्रोही और नीच नहीं कहलाओगे तथा तुम्हें पापपूर्ण अपयश नहीं प्राप्तज होगा। ‘राजन्! मेरे जीवन का अंत होने से प्रजाओं में शांति हो जाय। सब राजा प्रसन्न तापूर्वक एक दूसरे से मिलें। पिता पुत्र से, भानजा मामा से और भाई भाई से मिले । ‘दुर्योधन! यदि तुम मोहवश अपनी मूर्खता के कारण मेरे इस समयोचित वचन को नहीं मानोगे तो अंत में पछताओगे और इस युद्ध में ही तुम सब लोगों का अंत हो जायगा। यह मैं तुमसे सच्चीत बात कह रहा हूं’। गङ्गनंदन भीष्मु समस्ता राजाओं के बीच सौहार्दवश दुर्योधन को यह बात सुनाकर मोन हो गये। बाणों से उनके मर्मस्थमल में अत्यंतत पीड़ा हो रही थी। उन्हों ने उस व्यमथा को किसी प्रकार काबू में करके अपने मन को परमात्मा के चिंतन में लगा दिया। संजय कहते हैं-राजन्! जैसे मरणासन्नब पुरूष को कोई दवा अच्छी् नहीं लगती है, उसी प्रकार महात्माय भीष्‍म का वह धर्म ओर अर्थ से युक्ते परम हितकर और निर्दोष वचन भी आपके पुत्र को पसंद नहीं आया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व में दुर्योधन के प्रति भीष्म का कथनविषयक एक सौ इक्की्सवां अध्या य पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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