महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-24
पच्चाशतम (50) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
तीसरे (तेहरवें) दिन के युद्ध की समाप्ति पर सेना का शिविर को प्रस्थान एवं रणभूमि का वर्णन
संजय कहते है – राजन् ! हमलोग शत्रुओं के उस प्रमुख वीर का वध करके उन बाणों से पीडित हो संध्या के समय शिबिर में विश्राम के लिये चले आये । उस समय हम लोगों के शरीर रक्त से भीग गये थे । महाराज ! हम और शत्रुपश के लोग युद्धस्थल को देखते हुए धीरे-धीरे वहां से हट गये । पाण्डव दल के लोग अत्यन्त शोकग्रस्त हो अचेत हो रहे थे । उस समय जब सूर्य अस्ताचल पर पहॅुचकर ढल रहे थे, कमल निर्मित मुकुट के समान जान पड़ते थे । दिन और रात्रि की संधिरूप वह अदभूत संध्या सियारिनों के भयंकर शब्दों से अमगलमयी प्रतीत हो रही थी । सूर्यदेव श्रेष्ठ तलवार, शक्ति, ऋष्टि, वरूण, ढाल और आभूषणों की प्रभा को छीनते तथा आकाश और पृथ्वी को समान अवस्था में लाते हुए से अपने प्रिय शरीर – अग्नि में प्रवेश कर रहे थे । महान मेघों के समुदाय तथा पर्वत शिखरों के समान विशालकाय बहुसंख्यक हाथी इस प्रकार पड़ थे, मानो वज्र से मार गिराये गये हों । वैजयन्ती पताका, अकुश, कवच और महावतों सहित धराशायी किये गये उन गजराजो की लाशोंसे सारी धरती पट गयी थी, जिसके कारण वहां चलने-फिरने का मार्ग बंद हो गया था । नरेश्वर ! शत्रुओं के द्वारा तहस-नहस किये गये विशाल नगरों के समान बड़े-बड़े रथ चूर-चूर होकर गिर थे । उनके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे । इसी प्रकार उनके सवार मरे पड़े थे, पैदल सैनिक तथा युद्ध सम्बन्धीअन्य उपकरण चूर-चूर हो गये थे । इन सबके द्वारा उस रणभूमि की अदभूत शोभा हो रही थी । रथों और अश्वों के समूह सवारों के साथ नष्ट हो गये थे । भिन्न-भिन्न प्रकारके भाण्ड और आभूषण छिन्न-भिन्न होकर पडे थे । मनुष्यों और पशुओं की जिह्रा, दॉत, ऑत और ऑखे बाहर निकल आयी थी । इन सबसे वहां की भूमि अत्यन्त घोर और विकराल दिखायी देती थी । योद्धाओं के कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध छिन्न-भिन्न हो गये । हाथी, घोड़े तथा रथों का अनुसरण करने वाले पैदल मनुष्य अपने प्राण खोकर पड़े थे । जो राजा और राजकुमार बहुमूल्य शयाओं तथा बिछौनों पर शयन करने के योग्य थे, वे ही उस समय मारे जाकर अनाथ की भॉति पृथ्वीपर पड़े थे । कुत्ते, सियार, कौए, बगले, गरूड़, भेडिये, तेंदुए, रक्त पीनेवाले पक्षी, राक्षसों के समुदाय तथा अत्यन्त भयंकर पिशाचगण उस रणभूमि में बहुत प्रसन्न हो रहे थे । वे मृतकों की त्वचा विदीर्ण करके उनके वसा तथा रक्त को पी रहे थे, मज्जा और मांस खा रहे थे, चर्बियों को काटकर चबा लेते थे तथा बहुतसे मृतकों को इधर-उधर खींचते हुए वे हंसते और गीत गाते थे । उस समय श्रेष्ठ योद्धाओं ने रणभूमि में रक्त की नदी बहा दी, जो वैतरणी के समान दुष्कर एवं भयंकर प्रतीत होती थी । उसमें जल की जगह रक्त की ही धारा बहती थी । ढेर के ढेर शरीर उसमे बह रहे थे । उसमें तैरते हुए रथ नाव के समान जान पड़ते थे । हाथियों के शरीर वहां पर्वत की चटटानों के समान व्याप्त हो रहे थे । मनुष्यों की खोपडियॉ प्रस्तर खण्ड के समान और मांस कीचड़ के समान जान पड़ते थे । वहां टूटे-फूटे पड़े हुए नाना प्रकार के शस्त्रसमूह मालाओं के समान प्रतीत होते थे । वह अत्यन्त भयंकर नही रणक्षेत्र के मध्यमभाग में बहती और मृतकों तथा जीवितों को भी बहा ले जाती थी । जिनकी ओर देखना भी कठिन था, ऐसे भंयकर पिशाच समूह वहां खाते-पीते और गर्जना करते थे । समस्त प्राणियों का विनाश करने वाले वे पिशाच को भी समानरूप से भोजन सामग्री प्राप्त हुई थी । प्रदोषकाल में यमराज के राज्य की वृद्धि करनेवाली यह युद्धभूमि बड़ी भयंकर दिखायी देती थी । वहां सब ओर नाचते हुए कबन्ध (धड़) व्याप्त हो रहे थे । यह सब देखते हुए उभय पक्ष के योद्धाओं ने वहां से धीरे-धीरे चलकर उस युद्धस्थल को त्याग दिया । उस समय लोगों ने देखा, इन्द्र के समान महाबली अभिमन्यु रणक्षेत्र में गिरा दिया गया है। उसके बहुमूल्य आभूषण छिन्न-भिन्न होकर शरीर से दूर जा पड़े हैं और वह यज्ञवेदी पर हविष्यरहित अग्नि के समान निस्तेज हो गया है ।
'
« पीछे | आगे » |