महाभारत सभा पर्व अध्याय 3 श्लोक 19-37
तृतीय (3) अध्याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)
ये सब वस्तुएँ लाकर उस असुर ने वह अनुपम सभा तैयार की, जो तीनों लोकों में विख्यात, दिव्य, मणिमयी और शुभ एवं सुन्दर थी।उसने उस समय वह श्रेष्ठ गदा भीमसेन को और देवदत्त नाम उत्तम शंख अर्जुन को भेंट कर दिया। उस शंख की आवाज सुनकर समस्त प्राणी काँप उठते थे। महाराज ! उस सभा में सुवर्णमय वृक्ष शोभा पाते थे। वह सब ओर से दस हजार हाथ विस्तृत थी (अर्थात् उसकी लंबाई और चैड़ाई भी दस-दस हजार हाथ थी)। जैसे अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा की सभा प्रकाशित होती है, उसी प्रकार अत्यन्त उद्भासित होने वाली उस सभा ने बड़ा मनोहर रूप धारण किया। वह अपनी प्रभा द्वारा सूर्यदेव की तेजमयी प्रभा से टक्कर लेती थी। वह दिव्य सभा अपने अलौकिक तेज से निरंतर प्रदीप्त सी जान पड़ती थी। उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि नूतन मेघों की घटा के समान वह आकाश को घेरकर खड़ी थी। उसका विस्तार भी बहुत था। वह रमणीय सभा पाप-ताप का नाश करने वाजी थी।
उत्तमोत्तम द्रव्यों से उसका निर्माण किया गया था। उसके परकोटे और फाटक रत्नों से बने हुए थे। उसमें अनेक प्रकार के अद्भुत चित्र अंकित थे। वह बहुत धन से पूर्ण थी। दानवों के विश्वकर्मा मयासुर ने उस सभा को बहुत सुन्दरता से बनाया था। बुद्धिमान् मय ने जिस सभा का निर्माण किया था, उसके समान सुन्दर यादवों की सुधर्मा सभा अथवा ब्रह्माजी की सभा भी नहीं थी। मयासुर की आज्ञा के अनुसार आठ हजार किंकर नामक राक्षस उस सभा की रक्षा करने और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर ले जाते थे। वे राक्षस भयंकर आकृतिवाले, आकाश में विचरने वाले, विशालकाय और महाबली थे। उनकी आँखे लाल और पिंगलवर्ण की थीं तथा कान सीपी के समान जान पड़ते थे। वे सब के सब प्रहार करने में कुशल थे। मयासुर ने उस सभा भवन के भीतर एक बड़ी सुन्दर पुष्करिणी बना रक्खी थी, जिसकी कहीं तुलना नहीं थी। उसमें इन्द्रनीलमणिमय कमल के पत्ते फैले हुए थे। उन कमलों के मृणाल मणियों के बने थे। उसमें पद्मरागमणिमय कमलों की मनोहर सुगंध छा रही थी। अनेक प्रकार के पक्षी उसमें रहते थे।
खिले हुए कमलों और सुनहली मछलियों तथा कछुओं से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस पोखरी में उतरने के लिये स्फटिक मणि की विचित्र सीढ़ियाँ बनी थीं। उसमें पंकरहित स्वच्छ जल भरा हुआ था। वह देखने में बड़ी सुन्दर थी। मन्द वायु से उद्वेलित हो जब जल की बूँदें उछलकर कमल के पत्तों पर बिखर जाती थीं, उस समय वह सारी पुश्करिणी भौक्तिक बिन्दुओं से व्याप्त जान पड़ती थी। उसके चारों ओर के घाटों पर बड़ी-बड़ी मणियों की चैकोर शिलाखण्डों से पक्की वेदियाँ बनायी गयी थीं। मणियों तथा रत्नों से व्याप्त होने के कारण कुछ राजा लोग उस पुष्करिणी के पास आकर और उसे देखकर भी उसकी यथार्थता पर विश्वास नहीं करते थे और भ्रम से उसे स्थल समझकर उसमें गिर पड़ते थे। उस सभा भवन के सब ओर अनेक प्रकार के बडे़-बडे़ वृक्ष लहलहा रहे थे, जो सदा फूलों से भरे रहते थे।
उनकी छाया बड़ी शीतल थी। वे मनोरम वृक्ष सदा हवा के झोंको से हिलते रहते थे। केवल वृक्ष ही नहीं, उस भवन के चारों ओर अनेक सुगन्धित वन, उपवन और बावलियाँ भी थी, जो हंस, कारण्डव तथा चक्रवाक आदि पक्षियों से युक्त होने के कारण बड़ी शोभा पा रहीं थी। वहाँ जल और स्थल में होने वाले कमलों की सुगन्ध लेकर वायु सदा पाण्डवों की सेवा किया करती थीं। मयासुर ने पूरे चैदह महीनों में इस प्रकार की उस अद्भुत सभा का निर्माण किया था। राजन् ! जब वह बनकर तैयार हो गयी, तब उसने धर्मराज को इस बात की सूचना दी।
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