महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 45 श्लोक 36-48

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पञ्चचत्वारिंश(45) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: पञ्चचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! यद्यपि यवन जातीय म्लेच्छ सभी उपायों से बात समझ लेने वाले और विशेषतः शूर होते हैं,तथापि अपने द्वारा कल्पित संशयों पर ही अधिक आग्रह रखते हैं (वैदिक धर्म को नहीं मानते)। अन्य देशों के लोग बिना कहै हुए कोई बात नहीं समझते हैं,परंतु बाहीक देश के लोग सब काम उलटे ही करते हैं (उनकी समझ उलटी ही होती है) और मद्र देश के कुछ निवासी तो ऐसे होते हैं कि कुछ भी नहीं समझ पाते। शल्य ! ऐसे ही तुम हो। अब मेरी बात का जवाब नहीं दोगे। मद्र देश के निवासी को पृथ्वी के सम्पूर्ण देशों का मल बताया जाता है। मदिरापान,गुरु की शैय्या का उपभोग,भ्रूणहत्या और दूसरों के धन का अपहरण-ये जिनके धर्म हैं,उनके लिये अधर्म नाम की कोई वस्तु नहीं।ऐसे आरट्ट और पंचन देश के लोगों को धिक्कार है । यह जानकर तुम चुपचाप बैठे रहो। फिर कोई प्रतिकूल बात मुँह से न निकालो। अन्यथा पहले तुम्हीं को मारकर पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करूँगा। शल्य बोले-कर्ण ! तुम जहाँ के राजा बनाये गये हो,उस अंग देश में क्या होता है ? अपने सगे-सम्बन्धी तब रोग से पीडि़त हो जाते हैं तो उनका परित्याग कर दिया जाता है। अपनी ही स्त्री और बच्चों को वहाँ के लाग सरे बाजार बेचते हैं। उस दिन रथी और अतिरथियों की गणना करते समय भीष्मजी ने तुमसे जो कुछ कहा था,उसके अनुसार अपने उन दोषों को जानकर क्रोध रहित हो शान्त हो जाओ। कर्ण ! सर्वत्र ब्राह्माण हैं। सब जगह क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र हैं तथा सभी देशों में उत्तम व्रत का पालन करने वाली साध्वी स्त्रियाँ होती हैं। सभी देशों के पुरुष दूसरे पुरुषों के साथ बात करते समय उपहास के क्षरा एक दूसरे को चोट पहुँचाते हैं और स्त्रियों के साथ रमण करते हैं। सभी देशों में अपने-अपने धर्म का पालन करने वाले राजा रहते हैं,जो दुष्टों का दमन करते हैं तथा सर्वत्र ही धर्मात्मा मनुष्य निवास करते हैं। कर्ण ! एक देश में रहने मात्र से सब लोग पाप का ही सेवन नहीं करते हैं। उसी देश में मनुष्य अपने श्रेष्ठ शील-स्वभाव के कारण उेसे महापुरुष हो जाते हैं कि देवता भी उनकी बराबरी नहीं कर सकते। संजय कहते हैं-राजन् ! तब राजा दुर्योधन ने कर्ण तथा शल्य दोनों को रोक दिया। उसने कर्ण को तो मित्रभाव- ये समझाकर मना किया और शल्य को हाथ जोड़कर रोका।। मान्यकवर। दुर्योंधन के मना करने पर कर्ण ने कोई उत्तर नहीं दिया और शल्या ने भी शत्रुओं की ओर मुंह फेर लिया। तब राधापुत्र कर्ण ने हंसकर शल्यऔ को रथ बढ़ाने की आशा देते हुए कहा-‘चलो, चलो’।

इस प्रकार श्री महाभारत कर्ण पर्व में कर्ण और शल्यथ का संवाद विषयक पैंतालीसवां अध्याधय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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