महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 23-32

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पञ्चम (5) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पञ्चम अध्याय: श्लोक 23-32 का हिन्दी अनुवाद

भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारी मन्त्री आदि सात[१] प्रकृतियाँ कहीं शत्रुओं में मिल तो नहीं गयी हैं ? तुम्हारे राज्य धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे रहकर सर्वथा तुम से प्रेम करते हैं न ? जिन पर तुम्हें संदेह, नहीं होता, ऐसे शत्रु के गुप्तचर कृत्रिम मित्र बनकर तुम्हारे मन्त्रियों द्वारा तुम्हारी गुप्त मन्त्रणा को जानकर उसे प्रकाशित तो नहीं कर देते ? क्या तुम मित्र, शत्रु और उदासीन लोगों के सम्बन्ध में यह ज्ञान रखते हो कि वे कब क्या करना चाहते हैं ? उपयुक्त समय का विचार करके ही संधि और विग्रह की नीति का सेवन करते हो न ? क्या तुम्हें इस बात का अनुमान है कि उदासीन एवं मध्यम व्यक्तियों के प्रति कैसा बर्ताव करना चाहिये ?
वीर ! तुम ने अपने स्वयं के समान विश्वसनीय वृद्ध, शुद्ध हृदय वाले, किसी बात को अच्छी तरह समझाने में समर्थ, उत्तम कुल में उत्पन्न और अपने प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले पुरूषों को ही मन्त्री बना रक्खा है न ? क्योंकि भारत ! राजा की विजय-प्रप्ति का मूल कारण अच्छी मन्त्रणा (सलाह) और उसकी सुरक्षा ही है, (जो सुयोग्य मन्त्री के अधीन है)। तात ! मन्त्र को गुप्त रखने वाले उन शास्त्रज्ञ सचिवों द्वारा तुम्हार राष्ट्र सुरक्षित तो है न? शत्रुओं द्वारा उसका नाश तो नहीं हो रहा है ? तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते ? समय पर जग जाते हो न ? अर्थ शास्त्र के जानकार तो तुम हो ही। रात्रि के पिछले भाग में जगकर अपने अर्थ (आवश्यक कर्तव्य एवं हित) के विषय में विचार तो करते हो न ?[२]
अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में उठकर अपने हित का चिन्तन करे । (नीलकण्ठी टीका से उद्धृत) (कोई भी गुप्त मन्त्रणा दो से चार कानों तक ही गुप्त रहती है, छः कानों में जाते ही वह फूट जाती है, अतः मैं पूछता हूँ,) तुम किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते अथवा बहुत लोगों के साथ बैठकर तो मन्त्रणा नहीं करते ? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारी निश्चित की हुई गुप्त मन्त्रणा फूटकर शत्रु के राज्य तक फैल जाती हो ? । धन की वृद्धि के ऐसे उपायों का निश्चय करके, जिन में मूलधन तो कम लगाना पड़ता हो, किंतु वृद्धि अधिक होती हो, उनका शीघ्रतापूर्वक आरम्भ कर देते हो न ? वैसे कार्यों में अथवा वैसा कार्य करने वाले लोगों के मार्ग में तुम विघ्न तो नहीं डालते ?
तुम्हारे राज्य के किसान- मजदूर आदि श्रमजीवी मनुष्य तुम से अज्ञात तो नहीं हैं ? उन के कार्य और गतिविधि पर तुम्हारी तो दृष्टि है न ? वे तुम्हारे अविश्वास के पात्र तो नहीं हैं अथवा तुम उन्हें बार-बार छोड़ते और पुनः काम पर लेते तो नहीं रहते ? क्योंकि महान् अभ्युदय या उन्‍नति में उन सबका स्नेहपूर्ण सहयोग ही कारण है । (क्योंकि चिरकाल से अनुगृहीत होने पर ही वे ज्ञात, विश्वासपात्र और स्वामी के प्रति अनुरक्त होते हैं)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वामी, मन्त्री, मित्र, कोष, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना एवं पुरवासी- ये राज्य के सात अंग ही सात प्रकृतियाँ हैं। अथवा दुर्गाध्यक्ष, बलाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्योतिषी- ये भी सात प्रकृतियाँ कही गयी हैं ।
  2. स्मृति में कहा है कि - ब्राह्मे मुहूतें चोत्थाय चिन्त-येदात्मनो हितम्।’

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