महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 83-97

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पञ्चम (5) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पञ्चम अध्याय: श्लोक 83-97 का हिन्दी अनुवाद

क्या तुम्हारे राज्य में कुछ रक्षक पुरूष सेना साथ लेकर चोर-डाकुओं का दमन करते हुए सुगम एवं दुर्गम नगरों में विचरते रहते हैं ? तुम स्त्रियों को सान्त्वना देकर संतुष्ट रखते हो न ? क्या वे तुम्हारे यहाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं ? तुम उन पर पूरा विश्वास तो नहीं करते ? और विश्चास करके उन्हें कोई गुप्त बात तो नहीं बता देते ? राजन् ! तुम कोई अमंगल सूचक समाचार सुनकर और उस के विषय में बार-बार विचार करके भी प्रिय भोग -विलासों का आनन्द लेते हुए अन्तः पुर में ही सोते तो नहीं रह जाते ? प्रजानाथ ! क्या तुम रात्रि के (पहले पहर के बाद) जो प्रथम दो (दूसरे -तीसरे ) याम हैं, उन्हीं में सोकर अन्तिम पहर में उठकर बैठ जाते और धर्म एवं अर्थ का चिन्तन करते हो ? पण्डु नन्दन ! तुम प्रतिदिन समय पर उठकर स्नान आदि के पश्रवात् वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो देश-काल के ज्ञाता मन्त्रियों के साथ बैठकर (प्रार्थी या दर्शनार्थी) मनुष्यों की इच्छा पूर्ण करते हो न?
शत्रुदमन ! क्या लाल वस्त्र धारण करके अलंकारों से अलंकृत हुए योद्धा अपने हाथों में तलवार लेकर तुम्हारी रक्षा के लिये सब ओर से सेवा में उपस्थित रहते हैं,? महाराज ! क्या तुम दण्डनीय अपराधियों के प्रति यमराज और पूजनीय पुरूषों के प्रति धर्मराज का-सा बर्ताव करते हो ? प्रिय एवं अप्रिय व्‍यक्तियों की भलीभाँति परीक्षा करके ही व्यवहार करते हो न ? कुन्ती कुमार ! क्या तुम ओषधि सेवन या पथ्य-भोजन आदि नियमों के पालन द्वारा अपने शारीरिक कष्ट को तथा वृद्ध पुरूषों की सेवा रूप सत्संग द्वारा मानसिक संताप को सदा दूर करते रहते हो ? तुम्हारे वैद्य अष्टांग चिकित्सा में[१] कुशल, हितैषी, प्रेमी एवं तुम्हारे शरीर को स्वस्थ रखने के प्रयन्त में सदा संलग्न रहने वाले हैं न ?
नरेश्वर ! कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम अपने यहाँ आये हुए अर्थी (याचक ) और प्रर्त्‍थी (राजा की ओर से मिली हुई वृत्ति बंद हो जाने से दुखी हो पुनः उसी को पाने के लिये प्रार्थी) की ओर लोभ, मोह अथवा अभिमान वश किसी प्रकार आँख उठाकर देखते तक नहीं ? कहीं अपने आश्रितजनों की जीविकावृत्ति को तुम लोभ, मोह, आत्मविश्वास अथवा आसक्ति से बंद तो नहीं कर देते ? तुम्हारे नगर तथा राष्ट्र के निवासी मनुष्य संगठित होकर तुम्हारे साथ विरोध तो नहीं करते ? शत्रुओं ने उन्हें किसी तरह घूस देकर खरीद तो नहीं लिया है ? कोई दुर्बल शत्रु जो तुम्हारे द्वारा पहले बलपूर्वक पीड़ित किया गया (किंतु मारा नहीं गया ), अब मन्त्रणा शक्ति से अथवा मन्त्रणा और सेना दोनों ही शक्तियों से किसी तरह बलवान् होकर सिर तो नहीं उठा रहा है ? क्या सभी मुख्य-मुख्य भूपाल तुम से प्रेम रखते हैं ? क्या वे तुम्हारे द्वारा सम्मान पाकर तुम्हारे लिये अपने प्राणों की बलि दे सकते हैं ? क्या तुम्हारे मन तें सभी विद्याओं के प्रति गुण के अनुसार आदर का भाव है ? क्या तुम ब्राह्मणों तथा साधु-संतों की सेवा-पूजा करते हो ? जो तुम्हारे लिये शुभ एवं कल्याणकारिणी है । इन ब्राह्मणों को सदा दक्षिणा तो देते रहते हो न ? क्योंकि वह स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नाड़ी, मल, मूत्र, जिव्‍हा, नेत्र, रूप, शब्द तथा स्पर्श-ये आठ चिकित्सा के प्रकार कहे जाते हैं ।

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