महाभारत सभा पर्व अध्याय 12 श्लोक 18-34

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द्वादश (12) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! भरत श्रेष्ठ ! यही कारण है कि उन सहस्त्रों राजाओं की अपेक्षा महाराज हरिश्चन्द्र अधिक सम्मानपूर्वक इन्द्र सभा में विराजमान होते हैं- इस बात को तुम अच्छी तरह जान लो। नरेश्वर ! प्रतापी हरिश्चन्द्र उस महायज्ञ को समाप्त करके जब सम्राट के पद पर अभिषिक्त हुए, उस समय उन की बड़ी शोभा हुई। भरत कुलभूषण ! दूसरे भी जो भूपाल राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे देवराज इन्द्र के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं। भरतर्षभ ! जो लोग संग्राम में पीठ दिखाकर वहीं मृत्यु का वरण कर लेते हैं, वे भी देवराज इन्द्र की उस सभा में जाकर वहाँ आनन्द का उपभोग करते हैं। तथा जो लोग कठोर तपस्या के द्वारा यहाँ अपने शरीर का त्याग करते हैं, वे भी उस इन्द्र सभा में जाकर तेजस्वी रूप धारण करके सदा प्रकाशित होते रहते हैं। कौरव नन्दन कुन्ती कुमार ! तुम्हारे पिता पाण्डु ने राजा हरिश्चन्द्र की सम्पत्ति देखकर अत्यन्त चकित हो तुम से कहने के लिये संदेश दिया है।
नरेश्वर ! मुझे मनुष्य लोक में आता जान उन्होंने प्रणाम करके मुझ से कहा- ‘देवर्षें ! आप युधिष्ठिर से यह कहियेगा- ‘भारत ! तुम्हारे भाई तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं, तुम सारी पृथ्वी को जीतने में समर्थ हो; अतः राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करो। ‘तुम-जैसे पुत्र के द्वारा वह यज्ञ सम्पन्न होने पर मैं भी शीघ्र ही राजा हरिश्चन्द्र की भाँति बहुत वर्षों तक इन्द्र भवन में आनन्द भोगूँग’। तब मैंने पाण्डु से कहा -‘एवमस्तु, यदि मैं भूलोक में जाऊँगा तो आप के पुत्र राजा युधिष्ठिर से कह दूँगा’। पुरूष सिंह पाण्डु नन्दन ! तुम अपने पिता के संकल्प को पूरा करो । ऐसा करने पर तुम पूर्वजों के साथ देवराज इन्द्र के लोक में जाओगे । राजन् ! इस महान् यज्ञ में बहुत-से विघ्‍न आने की सम्भावना रहती है; क्योंकि यज्ञनाशक ब्रह्म राक्षस इस का छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं । तथा इसका अनुष्ठान होने पर कोई एक ऐसा निमित्त भी बन जाता है,जिससे पृथ्‍वी पर विनाशकारी युद्ध उपस्थित हो जाता है, जो क्षत्रियों के संहार और भूमण्‍डल के विनाश का कारण होता है।
राजेन्द्र ! यह सब सोच-विचारकर तुम्हें जो हितकर जान पड़े, वह करो । चारों वर्णों की रक्षा के लिये सदा सावधान और उद्यत रहो। संसार में तुम्हारा अभ्युदय हो, तुम आनन्दित रहो और धन से ब्राह्मणों को तृप्त करो । तुम ने मुझ से जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने विस्तारपूर्वक बता दिया । अब मैं यहाँ से द्वारका जाऊँगा, इस के लिये तुम से अनुमति चाहता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! कुन्ती कुमारों से ऐसा कहकर नारद जी जिन ऋषियों के साथ आये थे, उन्हीं से घिरे हुए पुनः चले गये। नारद जी के चले जाने पर कुरूश्रेष्ठ कुन्ती नन्दन राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ के विषय में विचार करने लगे।

इस प्रकार श्री महाभारत सभापर्व के अन्तगर्त लोकपाल सभाख्यान पर्व में पाण्डु-संदेश-कथन विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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