महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 49 श्लोक 50-69

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एकोनपच्चाशत्तम (49) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनपच्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 50-69 का हिन्दी अनुवाद

उस समय राधापुत्र कर्ण पाण्डुेनन्दशन युधिष्ठिर का पीछा करके वज्र, छत्र, अंकुश, मत्य्स्त, ध्वसज, कूर्म और कमल आदि शुभ लक्षणों से सम्प‍न्न गोरे हाथ से उनका कंधा छूकर, मानो अपने आपको पवित्र करने के लिये उन्हें बलपूर्वक पकड़ने की इच्छाा करने लगा। उसी समय उसे कुन्तीवदेवी को दिये हुए अपने वचन का स्मरण हो आया। उस समय राजा शल्यर ने कहा 'कर्ण। इन नृपश्रेष्ठद युधिष्ठिर को हाथ न लगाना, अन्य था वे पकड़ते ही तुम्हाशरा वध करके अपनी क्रोधाग्निण से तुम्हेंय भस्मठ कर डालेंगे। राजन्। तब कर्ण जोर-जोर से हंस पड़ा और पाण्डु्पुत्र युधिष्ठिर की निन्दा सा करता हुआ बोला ‘युधिष्ठिर। जो क्षत्रिय-कुल में उत्पसन्न हो, क्षत्रिय धर्म में तत्पधर रहता हो, वह महासमर में प्राणों की रक्षा के लिये भयभीत हो युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता है मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुम क्षत्रिय धर्म में निपुण नहीं हो। ‘कुन्त कुमार। तुम ब्राह्मबल, स्वामध्यामय एवं यज्ञ-कर्म में ही कुशल हो; अत: न तो युद्ध किया करो और न वीरों के सामने ही जाओ। ‘माननीय नरेश। न इन वीरों से कभी अप्रिय वचन बोलो और न महान् युद्ध में पैर ही रखो। यदि अप्रिय वचन बोलना ही हो तो दूसरों से बोलना; मेरे जैसे वीरों से नहीं। ‘युद्ध में मेरे जैसे लोगों से अप्रिय वचन बोलने पर तुम्हें यही तथा दूसरा कुफल भी भोगना पड़ेगा। अत: कुन्तीदनन्द न। अपने घर चले जाओ अथवा जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन हों वही पधारो। राजन् कर्ण समरागण में किसी तरह भी तुम्हारा वध नहीं करेगा।
महाबली कर्ण ने युधिष्ठिर से ऐसा कहकर फिर उन्हेंह छोड़ दिया और जैसे वज्रधारी इन्द्रे असुरसेना का संहार करते हैं, उसी प्रकार पाण्डफवसेना का विनाश आरम्भ कर दिया। राजन्। तब राजा युधिष्ठिर लजाते हुए से तुरंत रण भूमि से भाग गये। राजा को रणक्षैत्र से हटा हुआ जानकर चेदि, पाण्डएव और पाच्चाल वीर, महारथी सात्यरकि, द्रौपदी के शूरवीर पुत्र तथा पाण्डुननन्दिन माद्रीकुमार नकुल-सहदेव भी धर्म मर्यादा से कभी च्युैत न होने वाले युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चल दिये। तदनन्तधर युधिष्ठिर सेना को युद्ध से विमुख हुई देख हर्ष में भरे हुए वीर कर्ण ने कौरव सैनिकों को साथ लेकर कुछ दूर तक उसका पीछा किया। उस समय भेर, शखं, मृदगड़ और धनुषों की ध्वछनि सब ओर फैल रही थी तथा दुर्योधन के सैनिक सिंह के समान दहाड़ रहे थे। कुरुवंशी महाराज। युधिष्ठिर के घोड़े थक गये थे; अत: उन्होंने तुरंत ही श्रुतकीर्तिके रथ पर आरुढ़ हो कर्ण के पराक्रम को देखा। अपनी सेना को खदेड़ी जाती हुई देख धर्मराज युधिष्ठिर ने कुपित हो अपने पक्ष के योद्धाओं से कहा ‘अरे। क्यों चुप बैठे हो इन शत्रुओं को मार डालो’। राजा की यह आज्ञा पाते ही भीमसेन आदि समस्तच पाण्डैव महारथी आपके पुत्रों पर टूट पड़े। भारत। फिर तो वहां इधर-उधर सब ओर रथी, हाथी सवार, घुड़सवार और पैदल योद्धाओं एवं अस्त्र शस्त्रों का भयंकर शब्द गूंजने लगा। 'उठो, मारो, आगे बढ़ो, टूट पड़ो' इत्या दि वाक्य बोलते हुए सब योद्धा उस महासमर में एक दूसरे को मारने लगे। उस समय वहां अस्त्रोंप से आवृत हो परस्पकर करने वाले नरश्रेष्ठे वीरों के चलाये हुए बाणों की वृष्ठि से आकाश में मेघों की छाया-सी छा रही थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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