महाभारत शल्य पर्व अध्याय 22 श्लोक 22-48

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द्वाविंश (22) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 22-48 का हिन्दी अनुवाद

भारत ! वे दोनों वीर क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले और शत्रुओं के लिये दुःसह थे। अतः एक दूसरे के प्रहार का भरपूर जवाब देने की इच्छा रखकर वे घोर युद्ध करने लगे । प्रत्यंचा खींचने से उनके हाथों की त्वचा बहुत कठोर हो गयी थी और वे सम्पूर्ण दिशाओं को आतंकित कर रहे थे। दूसरी ओर वीर शकुनि रणभूमि में युधिष्ठिर को पीड़ा देने लगा। प्रभो ! सुबल के उस पुत्र ने युधिष्ठिर के चारों घोड़ों को मारकर सम्पूर्ण सेनाओं का क्रोध बढ़ाते हुए बडे़ जोर से सिंहनाद किया । इसी बीच में प्रतापी सहदेव युद्ध में किसी परास्त न होनेवाले वीर राजा युधिष्ठिर को अपने रथपर बिठाकर दूर हटा ले गये तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने दूसरे रथपर आरूढ़ हो पुनः धावा किया और शकुनि को पहले नौ बाणों से घायल करके फिर पांच बाणों से बींध डाला। इसके बाद सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने बडे़ जोर से सिंहनाद किया। मान्यवर ! उसका वह युद्ध विचित्र, भयंकर, सिद्धों और चारणों द्वारा सेवित तथा दर्शकों का हर्ष बढ़ाने वाला था।। दूसरे ओर अमेय आत्मबल से सम्पन्न उलूक ने महाधनुर्धर रणदुर्भद नकुल पर चारों ओर से बाणों की वर्षा करते हुए धावा किया।। इसी प्रकार शूरवीर नकुल ने रणभूमि में शकुनि के पुत्र को बड़ी भारी बाण वर्षा के द्वारा सब ओर से अवरूद्ध कर दिया।। वे दोनों वीर महारथी उत्तम कुल में उत्पन्न हुए थे ! अतः समरांगण में एक-दूसरे के प्रहार का प्रतीकार करने की इच्छा रखकर जूझते दिखायी देते थे । राजन् ! इसी तरह शत्रुसंतापी सात्यकि कृतवर्मा के साथ युद्ध करते हुए युद्धस्थल में उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे इन्द्र बलि के साथ दुर्योधन ने युद्धस्थल में धृष्‍टधुम्न का धनुष काट दिया और धनुष कट जाने पर उन्हें पैने बाणों से बींध डाला । तब धृष्‍टधुम्न भी दूसरा उत्तम धनुष लेकर समरभूमि मे सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते राजा दुर्योधन के साथ युद्ध करने लगे । भरतश्रेष्ठ ! रणभूमि में उन दोनों का महान् युद्ध ऐसा जान पड़ता था, मानों मद की धारा बहाने वाले दो उत्तम मतवाले हाथी आपस में जूझ रहे हों । दूसरी ओर शूरवीर कृपाचार्य ने रणभूमि में कुपित हो महाबली द्रौपदी पुत्रों को झुकी हुई गाँठवाले बहुत-से बाणोंद्वारा घायल कर दिया । जैसे देहधारी जीवात्मा का पाँचों इन्द्रियों के साथ युद्ध हो रहा हो, उसी प्रकार उन पाँचों भाईयों के साथ कृपाचार्य का युद्ध हो रहा था। धीरे-धीरे वह युद्ध अत्यन्त घोर, अनिवार्य और अमर्यादित हो गया। जैसे इन्द्रियाँ मूढ़ मनुष्य को पीड़ा देती हैं, उसी प्रकार वे पाँचों भाई कृपाचार्य को पीड़ित करने लगे। कृपाचार्य भी अत्यन्त रोष में भरकर रणक्षेत्र में उन सबके साथ युद्ध कर रहे थे।। भारत ! उनका उन द्रौपदी पुत्रों के साथ ऐसा विचित्र युद्ध होने लगा, जैसे बारंबार उठ-उठकर विषयों की ओर प्रवृत होनेवाली इन्द्रियों के साथ देहधारियों का युद्ध होता रहता है।। प्रजानाथ ! उस समय मनुष्य मनुष्यों से, हाथी हाथियों से, घोडे़ घोड़ों से और रथी रथियों से भिड़ गये थे। फिर उनमें अत्यन्त घोर घमासान युद्ध होने लगा । प्रभो ! महाराज ! यह विचित्र, यह घोर, यह रौद्र युद्ध इस प्रकार बहुत से भीषण युद्ध चलने लगे । राजन् ! उनके वाहनों से, हवा से और दौड़ते हुए घुड़सवारों से उड़ायी गयी भयंकर धूल सब ओर व्याप्त दिखायी देती थी।। रथ के पहियो और हाथियों के उच्छ्वासों से ऊपर उठायी हुई धूल संध्याकाल के मेघों के समान सूर्य के मार्ग में छा गयी थी। उस धूल के सम्पर्क में आकर सूर्य प्रभावहीन हो गये थे तथा पृथ्वी और वे महारथी शूरवीर भी ढक गये थे । भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर दो ही घड़ी में वीरों के रक्त से धरती सिंच उठी और सब ओर की धूल बैठ जाने के कारण रणक्षेत्र निर्मल हो गया । वह भयंकर दिखायी देनेवाली तीव्र धूलि सर्वथा शांत हो गयी। भारत ! राजेन्द्र ! तब मैं फिर उस दारूण मध्याहृकाल में अपने बल और श्रेष्ठता के अनुसार अनेक द्वन्द्वयुद्ध देखने लगा। योद्धाओं के कवचों की प्रभा वहाँ अत्यन्त उज्जवल दिखायी देती थी । जैसे पर्वत पर जलते हुए विशाल बाँसों के वन से प्रकट होने वाला चटचट शब्द सुनायी देता है, उसी प्रकार युद्ध स्थल में बाणों के गिरने का भयंकर शब्द वहाँ गूँज उठा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्ध विषयक साईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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