महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 58 श्लोक 21-45
अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: कर्ण पर्व
अर्जुन का श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर के पास चलने का आग्रह तथा श्रीकृष्ण् का उन्हें युद्धभूमि दिखाते और वहां का समाचार बताते हुए रथ को आगे बढ़ाना
संजय कहते है- राजन्। इस प्रकार अर्जुन, कर्ण एवं पाण्डु्पुत्र भीमसेन ने कुपित होने पर राजाओं का वह संग्राम उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। नरेश्वर। द्रोणपुत्र तथा अन्यातन्य महारथियों को हराकर और उन पर विजय पाकर अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा। ‘महाबाहु श्रीकृष्णय। देखिये, वह पाण्डवसेना भागी जा रही है तथा कर्ण कमरागण में बड़े-बड़े महारथियों को काल के गाल में भेज रहा है। ‘दशार्ह। इस समय मुझे धर्मराज युधिष्ठिर नहीं दिखायी दे रहे है। योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण धर्मराज के ध्वरज का भी दर्शन नहीं हो रहा है। ‘जनार्दन। इस सम्पू्र्ण दिन के ये तीन भाग ही शेष रह गये हैं। दुर्योधन की सेनाओं में से कोई भी मेरे साथ युद्ध नहीं कर रहा है। ‘अत: आप मेरा प्रिय करने के लिये वहीं चलिये, जहां राजा युधिष्ठिर हैं। वार्ष्णेरय। भाइयों सहित धर्मपुत्र यधिष्ठिर को युद्ध में सकुशल देखकर मैं पुन: समरागण में शत्रुओं के साथ युद्ध करुंगा’। तदनन्तमर अर्जुन ने कथनानुसार श्रीकृष्णग तुरंत ही रथ के द्वारा उसी ओर चल दिये, जहां राजा युधिष्ठिर और सृंजय महारथी मौजूद थे। वे मृत्यु को ही युद्ध से निवृत होने का निमित्त बनाकर आपके योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहे थे। तदनन्तदर जहां वह भारी जनसंहार हो रहा था, उस संग्रामभूमि को देखते हुए भगवान् श्रीकृष्ण। सव्य्साची अर्जुन ने इस प्रकार बोले। ‘कुन्तीवनन्द्न। देखो, दुर्योधन के कारण भरतवंशियों का तथा भूमण्डसल के अन्यन क्षत्रियों का महाभयंकर विनाश हो रहा है। ‘भरतनन्दोन। देखो, मरे हुए धनुर्धरों के ये सोने के पृष्ठ भागवाले धनुष और बहुमूल्य तरकस फेंके पड़े हैं। ‘सुवर्णमय पंखों से युक्त झुकी हुई गांठवाले बाण तथा तेल में धोये हुए नाराच केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान दिखायी दे रहे हैं।
‘भारत। हाथी दांत की बनी हुई मूंठवाले सुवर्ण जटित खंड तथा स्वनर्णभूषित कवच भी फेंके पड़े हैं। ‘देखो, ये सुवर्णमय प्रास, स्विर्ण-भूषित शक्तियां तथा सोने के बने हुए पत्रों से मढ़ी हुई विशाल गदाएं पड़ी हैं। ‘स्वर्णमयी ऋषि, हेमभूषित पट्टिश तथा सुवर्णजटित दण्डों से युक्त फर से फेंके हुए हैं। ‘लोहे के कुन्त (भाले), भारी मुसल, विचित्र शतघ्रियां और विशाल परिघ इधर-उधर पड़े हैं। ‘इस महासमर में फेंके गये इन चक्रों और तोमरों को भी देखो। विजय की अभिलाषा रखने वाले वेगशाली योद्धा नाना प्रकार के शस्त्रों को हाथ में लिये हुए ही अपने प्राण खो बैठे हैं; तथापि जीवित से दिखायी देते हैं। ‘देखो, सहस्त्रों के शरीर गदाओं के आघात से चूर-चूर हो रहे हैं। मुसलों की मार से उनके मस्तक फट गये हैं तथा हाथी, घोड़े एवं रथों से वे कुचल दिये गये हैं। ‘शत्रुसूदन। बाण, शक्ति, ऋष्टि, पदिृश, लोहमय परिघ,भयंकर लोह निर्मित कुन्तस और फरसों से मनुष्यों।, घोड़ों और हाथियों के बहु-संख्य क शरीर छिन्न-भिन्न होकर खून से लथपथ और प्राणशून्य् हो गये हैं और उनके द्वारा रणभूमि आच्छा दित दिखायी देती हैं। ‘भारत। चन्दयन चर्चित, अंगदों और केयूरों से अलंकृत, सोने के अन्य। आभूषणों से विभूषित तथा दस्ताानों से युक्त वीरों की कटी हुई भुजाओं से युद्ध भूमि की अभ्दुखत शोभा हो रही है। ‘सांड के समान नेत्रों वाले वेगशाली वीरों के दस्ताओनों सहित आभूषण-भूषित हाथ कटकर गिरे हैं। हाथियों के शुण्डा दण्डों के समान मोटी जांघें खण्डित होकर पड़ी हैं तथा श्रेष्ठग चूड़ामणि धारण किये कुण्डदल-मण्डित मस्तंक भी धड़ से अलग होकर पड़े हैं। इन सबके द्वारा रणभूमि की अपूर्व शोभा हो रही है। ‘भरतश्रेष्ठ । जिनकी गर्दन कट गयी है, विभिन्न अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं तथा जो खून से लथपथ होकर लाल दिखायी देते हैं, उन कबन्धोंग (धड़ों) से रणभूमि ऐसी जान पड़ती हैं, मानो वहां जगह-जगह बुझी हुई लपटों वाले आग के अंगारे पड़े हों। ‘देखो, जिनमें सोने की छोटी-छोटी घंटियां लगी हैं, ऐसे बहुत-से सुन्दर रथ टुकड़े-टुकड़े होकर पड़े हैं। वे बाणों से घायल हुए घोड़े भरे पड़े हैं और उनकी आंतें बाहर निकल आयी हैं। ‘अनुकर्ष, उपासग, पताका, नाना प्रकार के ध्वहज तथा रथियों के बड़े-बड़े श्वेेत शंख बिखरे पड़े हैं। ‘जिनकी जीभें बाहर निकल आयी हैं, ऐसे अगणित पर्वताकार हाथी धरती पर सदा के लिये सो गये हैं। विचित्र वैजयन्ती पताकांए खण्डित होकर पड़ी हैं तथा हाथी और घोड़े मारे गये हैं। ‘हाथियों के विचित्र झूल, मृगचर्म और कम्बील चिथड़े चिथड़े होकर गिरे हैं। चांदी के तारों से चित्रित झूल, अंकुश और अनेक टुकड़ों में बंटे हुए बहुत से घंटे महान् गजराजों के साथ ही धरती पर गिरे पड़े हैं। ‘जिनमें वैदूर्यमणि के डंडे लगे हुए हैं, ऐसे बहुत से सुन्दोर अंकुश पृथ्वीे पर पड़े हैं। सवारों के हाथों में सटे हुए कितने ही सुवर्णनिर्मित कोड़े कटकर गिरे हैं। ‘विचित्र मणियों से जटित और सोने के तारों से विभूषित रकुमृग के चमड़े के बने हुए, घोड़ों की पीठ पर बिछाये जाने वाले बहुत से झूल भूमि पर पड़े हैं।
‘नरपतियों के मणिमय मुकुट, विचित्र स्वटर्णमय हार, छत्र, चंवर और व्य़जन फेंके पड़े हैं। ‘देखो, चन्द्ररमा और नक्षत्रों के समान कान्तिमान्, मनोहर कुण्डेलों से विभूषित तथा दाढ़ी-मूंछ से युक्त वीरों के आभूषण-भूषित मुखों से रणभूमि अत्यरन्त आच्छाूदित हो गयी है और इस पर रक्त की कीच जम गयी है। ‘प्रजापालक अर्जुन। उन दूसरे योद्धाओं पर दृष्टिपात करो, जिनके प्राण अभी तक शेष हैं और जो चारों ओर कराह रहे हैं। उनके बहुसंख्यरक कुटुम्बीी जन हथियार डालकर उनके निकट आ बैठे हैं और बारंबार रो रहे हैं। ‘जिनके प्राण निकल गये हैं, उन योद्धाओं को वस्त्र आदि से ढककर विजयाभिलाषी वेगशाली वीर पुन: अत्य।न्तज क्रोधपूर्वक युद्ध के लिये जा रहे हैं। ‘दूसरे बहुत से सैनिक रणभूमि में गिरे हुए अपने शूरवीर कुटुम्बीि जनों के पानी मांगने पर वहीं इधर-उधर दौड़ रहे हैं। ‘अर्जुन। कितने ही योद्धा पानी लाने के लिये गये, इसी बीच में पानी चाहने वाले बहुत से वीरों के प्राण निकल गये। वे शूरवीर जब पानी लेकर लौटे हैं, तब अपने उन सम्बान्धियों को चेतनारहित देखकर पानी को वहीं फेंक परस्पर चीखते-चिल्लाते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं। ‘श्रेष्ठी वीर अर्जुन। उधर देखो, कुछ लोग पानी पीकर मर गये और कुछ पीते-पीते ही अपने प्राण खो बैठे। कितने ही बान्धोवजनों के प्रेमी प्रिय बान्ध,वों को छोड़कर उस महासमर में जहां-तहां प्राण शून्यन हुए दिखायी देते हैं। ‘नरश्रेष्ठऔ। उन दूसरे योद्धाओं को देखा, जो दांतों से औठ चबाते हुए टेढ़ी भौंहों से युक्त मुखों द्वारा चारों ओर दृष्टिपात कर रहे हैं। इस प्रकार बातें करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन उस महासमर में राजा का दर्शन करने के लिये उस स्थारन की ओर चल दिये, जहां राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से बारंबार कहते थे, चलिये, चलिये’। भगवान् श्रीकृष्ण बड़ी उतावली के साथ अर्जुन को युद्धभूमि का दर्शन कराते हुए आगे बढ़े और धीरे-धीरे उनसे इस प्रकार बोले-‘पाण्डुजनन्दभन। देखो, राजा के पास बहुत से भूपाल जा पहुंचे हैं। ‘उधर दृष्टिपात करो। कर्ण युद्ध के महान् रंगमच पर प्रज्वोलित अग्रि के समान प्रकाशित हो रहा है और महाधनुर्धर भीमसेन युद्धस्थहल की ओर लौट पड़े हैं।
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