महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 59 श्लोक 51-67

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एकोनषष्टितम (59) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 51-67 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा हांके गये वे चन्द्रामा के समान श्वे त रंगवाले घोड़े अश्वत्थाहमा के रथ की ओर इस प्रकार दौड़े, मानो आकाश को पीते जा रहे हों। राजन् महापराक्रमी श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को आते देख महाबली अश्वत्था मा धृष्टद्युम्र के वध के लिये विशेष प्रयत्न करने लगा। नरेश्वर। धृष्टम्न को खींचे जाते देख महाबली अर्जुन ने अश्वत्थाामा पर बहुत से बाण चलाये। गाण्डीव धनुष से वेगपुर्वक छूटे हुए वे सुवर्ण निर्मित बाण अश्वत्थासमा के पास पहुंचकर उसके शरीर में उसी प्रकार घुस गये, जैसे सर्प बांबी में प्रवेश करते हैं । राजन। उन भयंकर बाणों से घायल हुआ प्रतापी वीर द्रोणपुत्र अश्वत्था मा समरागण में अमित बलशाली धृष्टद्युम्न को छोड़कर अपने रथ पर जा चढ़ा। वह धनंजय के बाणों से अत्यिनत पीडित हो चुका था; इसलिये उसने भी श्रेष्ठ। धनुष हाथ में लेकर बाणों द्वारा अर्जुन को घायल कर दिया । नरेश्वर इसी बीच में सहदेव शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्र को अपने रथ के द्वारा रणभूमि में अन्यनत्र हटा ले गये। महाराज। अर्जुन ने अपन बाणों से अश्वत्थारमा को घायल कर दिया। तब द्रोणपुत्र ने अत्यन्त कुपित हो अर्जुन की छाती और दोनों भुजाओं में प्रहार किया। रण में कुपित हुए कुन्तीककुमर ने द्रोणपुत्र पर द्वितीय कालदण्ड समान साक्षात् कालस्वतरुप नाराच चलाया।
महाराज। वह महा तेजस्वी नाराच उस ब्राह्मण के कंधे पर जा लगा। अश्वत्था मा युद्ध स्थनल में उस बाण के वेग से व्यादकुल हो रथ की बैठक में धम्मा से बैठ गया और अत्य्न्तथ मूर्छित हो गया। राजराजेश्वर। तत्पिश्चात् कर्ण ने समरागण में कुपित हो अर्जुन की ओर बारंबार देखते हुए विजयनामक धनुष की टकार की। वह महासमर में अर्जुन के साथ द्वैरथ युद्ध की अभिलाषा करता था। द्रोणकुमार को विह्रल देखकर उसका सारथि बड़ी उतावली के साथ उसे रथ के द्वारा समरागण से दूर हटा ले गया। महाराज। धृष्टद्युम्न को संकट से मुक्त और द्रोणपुत्र को पीडित देख विजय से उल्लयसित होने वाले पाच्चालों ने बड़े जोर से गर्जना की। उस समय सहस्त्रोंउ दिव्यत वाद्य बजने लगे। वे पाच्चाल सैनिक युद्धस्थ्ल में वह अद्भुत कार्य देखकर सिंहनाद करने लगे। ऐसा पराक्रम करके कुन्ती पुत्र धनंजय ने भगवान् श्रीकृष्णक से कहा-‘श्रीकृष्ण।। अब संशप्तककों की ओर चलिये। इस समय यही मेरा सबसे प्रधान कार्य है। श्रीकृष्ण अर्जुन का वह कथन सुनकर मन और वायु के समान वेगशाली तथा अत्ययन्त ऊंची पताका वाले रथ के द्वारा वहां से चल दिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वकत्थाीमा का पलायन विषयक उनसठवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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