महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 39 श्लोक 18-27

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एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद

उस समय जो मनुष्य जिस वस्तु को जितनी मात्रा में लेना चाहता, वह उस वस्तु को उतनी ही मात्रा में प्राप्त कर लेता था । राजा युधिष्ठिर ने अपनी उन दोनों माताओं के उद्देश्य से शय्या, भोजन, सवारी, मणि,रत्न, धन,वाहन, वस्त्र, नाना प्रकार के भोग तथा वस्त्राभूषणों से विभूषित दासियाँ प्रदान कीं। इस प्रकार अनेक बार श्राद्ध के दान देकर पृथ्वीपाल राजा युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर नामक नगर में प्रवेश किया। जो लोग राजा की आज्ञा से हरद्वार में भेजे गये थे, वे उन तीनों की हड्डियों को संचित करके वहाँ से फिर गंगा जी के तट पर गये । फिर भाँति-भाँति की मालाओं और चन्दनों से विधि पूर्वक उन की पूजा की । पूजा करके उन सब को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया । इस के बाद हस्तिनापुर में लौटकर उन्होंने यह सब समाचार राजा को कह सुनाया। राजन् ! तदनन्तर देवर्षि नारद जी धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर को आश्वासन देकर अभीष्ट स्थान को चले गये। इस प्रकार जिनके पुत्र रणभूमि में मारे गये थे, उन राजा धृतराष्ट्र ने अपने जाति-भाई, सम्बन्धी, मित्र, बन्धु और स्वजनों के निमित्त सदा दान देते हुए (युद्ध समाप्त होने के बाद) पंद्रह वर्ष हस्तिनापुर नगर में व्यतीत किये थे और तीन वर्ष वन में तपस्या करते हुए बिताये थे। जिनके बन्धु-बान्धव नष्ट हो गये थे, वे राजा युधिष्ठिर मन में अधिक प्रसन्न न रहते हुए किसी प्रकार राज्य का भार सँभालने लगे।

इस प्रकार श्री महाभारत आश्रमवासिकपर्व के अन्तर्गत नारदागमन पर्व में श्राद्ध दान विषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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