महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 21-36

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षट्त्रिंश (36) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षट्त्रिंश श्लोक 21-36 का हिन्दी अनुवाद

‘भरतश्रेष्ठ ! प्रभो ! तुमने राजनीति बहुत बार सुनी है; अतः तुम्हें संदेश देने लायक कोई बात मुझे नहीं दिखायी देती। तुमने मेरे लिये बहुत कुछ किया है।वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब राजा धृतराष्ट्र ने वैसी बात कही, तब युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार कहा–‘धर्म के ज्ञाता महाराज ! आप मेरा परित्‍याग न करें, क्योंकि मैं सर्वथा निरपराध हूँ।‘मेरे ये सब भाई और सेवक इच्छा हो तो चले जायँ; किंतु मैं नियम और व्रत का पालन करता हुआ आप की तथा इन दोनों माताओं की सेवा करूँगा। यह सुनकर गान्धारी ने कहा- ‘बेटा ! ऐसी बात न कहो । मैं जो कहती हूँ उसे सुनो । यह सारा कुरूकुल तुम्हारे ही अधीन है । मेरे श्वशुर का पिण्ड भी तुम परही अवलम्बित है; अतः पुत्र ! तुम जाओ, तुम ने हमारे लिये जितना किया है, वही बहुत है । तुम्हारे द्वारा हम लोगों का स्वागत-सत्कार भली भाँति हो चुका है । इस समय महाराज जो आज्ञा दे रहे हैं, वही करो; क्योंकि पिता का वचन मानना तुम्हारा कर्तव्य है’। वैशम्पायन जी कहते हैं–राजन् ! गान्धारी के इस प्रकार आदेश देने पर राजा युधिष्ठिर ने अपने आँसू भरे नेत्रों को पोंछकर रोती हुई कुन्ती से कहा– ‘माँ ! राजा और यशस्विनी गान्धारी देवी भी मुझे घर लौटने की आज्ञादे दी रही हैं; किंतु मेरा मन आप में लगा हुआ है । जाने का नाम सुन कर ही मैं बहुत दुखी हो जाता हूँ । ऐसी दशा में मैं कैसे जा सकूँगा ? ‘धर्मचारिणि ! मैं आप की तपसया में विघ्न डालना नहीं चाहता; क्योंकि तप से बढ़कर कुछ नहीं है। (निष्काम भावपूर्वक) तपस्या से परब्रह्म परमात्मा की भी प्राप्ति हो जाती ही है। ‘रानी माँ ! अब मेरा मन भी पहले की तरह राजकाज में नही लगता है ।हर तरह से तपस्या करने को ही जी चाहता है। ‘शुभे ! यह सारी पृथ्वी मेरे लिये सूनी हो गयी है; अतः इस से मुझे प्रसन्नता नहीं होती । हमारे सगे-सम्बन्धी नष्ट हो गये; अब हमारे पास पहले की तरह सैन्यबल भी नहीं है। ‘पांचालों का तो सर्वथा नाश ही हो गया। उनकी कथा मात्र शेष रह गयी है । शुभे ! अब मुझे कोई ऐसा नहीं दिखायी देता,जो उनके वंश को चलाने वाला हो। ‘प्रायः द्रोणाचार्य ने ही सब को समरांगण में भस्म कर डाला था । जो थोड़े-से बच गये थे, उन्हें द्रोण पुत्र अश्वत्थामाने रात को सोते समय मार डाला।‘हमारे सम्बन्धी चेदि और मत्स्य देश के लोग भी जैसे पहले देखे गये थे, वैसे ही अब नहीं रहे । केवल भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रय से वृष्णिवंशी वीरों का समुदाय अब तक सुरक्षित है। ‘उसे ही देखकर अब मैं केवल धर्म सम्पादन की इच्छासे यहाँ रहना चाहता हूँ, धन के लिये नहीं ।तुम हम सब लोगों की ओर कल्याणमयी दृष्टि सेदेखो; क्योंकि तुम्हारा दर्शन हम लोगों के लिये अब दुर्लभहो जायगा । कारण कि राजा धृतराष्ट्र अब बड़ी कठोर और असह्य तपस्या आरम्भ करेंगे। यह सुनकर योद्धाओं के स्वामी महाबाहु सहदेव अपने दोनों नेत्रों में आँसू भरकर युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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