महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-9

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षड्विंश (26) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षड्विंश अध्याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठर संजय को इन्द्रप्रस्थ लौटाने ही शान्ति होना सम्भव बतलाना

युधिष्ठर बोले- संजय ! तुमने मेरी कौन सी ऐसी बात सुनी है, जिससे मेरी युद्ध की इच्छा व्यक्त हुई, है, जिसके कारण तुम युद्ध से भयभीत हो रहे हो ? तात ! युद्ध करने की अपेक्षा युद्ध न करना ही श्रेष्ठ है । सूत ! युद्ध न करने का अवसर पाकर भी कौन मनुष्य कभी युद्ध में प्रवृती होगा ? संजय ! यदि कर्म न करने पर भी पुरूष का संकल्प सिद्ध हो जाता वह मन से जिस जिस वस्तु को चाहता, वह वह उसे मिल जाती तो कोई भी मनुष्य कर्म नही करता, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है । युद्ध किये बिना यदि थोड़ा भी लाभ प्राप्त होता तो उसे बहुत समझना चाहिये | मनुष्य कभी भी किस लिये युद्ध का विचार करेगा : किसे देवताओं ने शाप दे रक्खा है, जो जान बूझकर युद्ध का वरण करेगा ? कुन्ती के पुत्र सुख की इच्छा रखकर वही कर्म करते है, जो धर्म के विपरीत न हो तथा जिससे सब लोगों का भला होता हो | हम लोग वही सुख चाहते है, जो धर्म की प्राप्ति कराने वाला हो । जो इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले विषय रस का अनुगामी होता है, वह सुख को पाने और दुःख को नष्ट करने की इच्छा से कम परन्तु वास्तव में उसका सारा कर्म दुःख रूप ही है क्योंकि वह कष्टदायक उपायों से साध्य है विषयों का चिन्तन अपने शरीर को पीड़ा देता । जो विषय चिन्तन से सर्वथा मुक्त है, वह कभी दुःख का अनुभव नहीं करता । जैसे प्रज्वलित अग्नि में ईधन डालने से उसका बल बहुत अधिक बढ़ जाता है, उसी प्रकार विनय भोग और धन का लाभ होने से मनुष्य की तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है । घी से शान्त न होने वाली प्रज्वलित अग्नि की भांति मानव कभी विषय भोग और धन से तृप्त नही होता है | हम लोग सहित राजा धृतराष्ट्र के पास यह भोगो की विशाल राशि संचित हो गई है परंतु देखो इतने पर भी उनकी तृप्ति नही होती | जो पुण्यात्मा नही है, वह संग्राम में विजयी नहीं होता । जो पुण्यात्मा नही है, वह अपना यशोगान नही सुनता । जो पुण्य नहीं किया है, वह मालाए गन्ध नही धारण कर सकता । जो पुण्यात्मा नही है, चन्दन आदि अवलेपन का भी उपयोग नही कर सकता । जिसने पुण्य नही किया है, वह अच्छे कपडे़ धारण नही करता । यदि राजा धृतराष्ट्र पुण्यवान नहीं होते तो हम लोगों को कुरूदेश से दूर कैसे कर देते ? तथापि भोग तृष्णा अज्ञानी दुर्योधन आदि के ही योग्य है, जो प्रायः ( सभी के ) शरीर के भीतर अन्तःकरण को पीड़ा देती रहती है | राजा धृतराष्ट्र स्वयं तो विषम वस्तु में लगे हुए हैय परंतु दूसरो में समतापूर्ण वर्ताव देखना चाहते है, यह अच्छी बात नहीं है । वे जैसा अपना वर्ताव देखते है, वैसा ही दूसरो का देखे |


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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