महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-19

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त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

व्यासजी का युधिष्ठिर को समझाते हुए काल की प्रबलता बताकर देवासुर संग्राम के उदाहरण से धर्मद्रोहियों के दमन का औचित्य सिद्ध करना और प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता बताना युधिष्ठिर बोले - पितामह ! अकेले मैंने ही राज्य के लोभ में आकर पुत्र, पौत्र, भाई, चाचा, ताऊ, श्वसुर, गुरु, मामा, बाबा, भानजे, सगे-सम्बधी, सुहृद, मित्र तथा भाई-बन्धु आदि नाना देशों से आये हुए बहुसंख्यक क्षत्रिय नरेशों को मरवा डाला। तपोधन ! जो अनेक बार सोमरस का पान कर चुके थे और सदा धर्म में ही तत्पर रहते थे, वैसे वीर भूपालों का वध करके मैं कौन सा फल पाऊँगा ? पितामह ! बारंबार इसी चिन्ता से मैं आज भी निरन्तर जल रहा हूँ। उन श्री सम्पन्न राजसिंहों से हीन हुई इस पृथ्वी को, भाई-बन्धुओं के भयंकर वध को तथा सैंकड़ों अन्य लोगों के विनाश को एवं करोड़ों अन्य मानवों के संहार को देखकर मैं सर्वथा संतप्त हो रहा हूँ।। जो अपने पुत्रों, पतियों तथा भाइयों से सदा के लिये बिछुडत्र गयी हैं, उन सुन्दरी स्त्रियों की आज क्या दशा होगी ? हम घोर विनाशकारी पाण्डवों और वृष्णिवंशियों को कोसती हुई वे दीन-दुर्बल अबलाएँ पृथ्वी पर पछाड़ खा-खाकर गिरेंगी। अपने पिता, भाई, पति और पुत्रों को न देखकर वे सारी युवती स्त्रियाँ प्राण त्याग देंगी और यमलोक में चली जायँगी। द्विजश्रेष्ठ ! वे अपने सगे-सम्बन्धियों के प्रति वात्सल्य रखने के कारण अवश्य ऐसा ही करेंगी, इसमें मुझे संशय नहीं है। धर्म की गति सूक्ष्म होने के कारण निश्चय ही हमें नारीहत्या के पाप का भागी होना पड़ेगा।
हमने सुहृदों का वध करके ऐसा पाप कर लिया है, जिसका प्रायश्चित्त से अन्त नहीं हो सकता; अतः हमें नीचे सिर करके निस्संदेह नरक में ही गिरना पड़ेगा। संत सें में श्रेष्ठ पितामह ! हम घोर तपस्या करके अपने शरीर का परित्याग कर देंगे। आप इसके लिये कोई विशेष आश्रम हो तो बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! उस समय युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर श्रीकृष्णद्वैपायन महर्षि व्यास ने इस विषय में अपनी बुद्धि द्वारा अच्छी तरह विचार करने के पश्चात् उन पाण्डुकुमार से कहा। व्यासजी बोले - राजन् ! क्षत्रियशिरोमणे ! तुम क्षत्रिय धर्म का बारंबार स्मरण करते हुए विषाद न करो; क्योंकि ये सभी क्षत्रिय अपने धर्म के अनुसार मारे गये हैं। वे सम्पूर्ण राजलक्ष्मी और भूमण्डलव्यापी महान् यश को प्राप्त करना चाहते थे; परन्तु यमराज के विधान से प्रेरित हो काल के गाल में चले गये हैं। न तुम, न भीमसेन, न अर्जुन और न नकुल-सहदेव ही उनका वध करने वाले हैं। काल ने बारी-बारी से ओर अपने नियम के अनुसार उन सभी देहधारियों के प्राण लिये हैं। काल के माता-पिता नहीं हैं। उसका किसी पर भी अनुग्रह नहीं होता। जो प्रजावर्ग के कर्म का साक्षी है, उसी काल ने तुम्हारे शत्रुओं का संहार किया है। भरतश्रेष्ठ ! काल ने इस युद्ध को निमित्तमात्र बनाश है। वह जो प्राणियों द्वारा ही प्राणियों का वध करता है, वही उसका ईश्वरीय रूप है। राजन् ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि काल जीव के पाप और पुण्य कर्मों का साक्षी है। वह कर्म की डोरी का सहारा ले भविष्य में होने वाले सुख और दुःख का उत्पादक होता है। वही समयानुसार कर्मों का फल देता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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